पृष्ठ:वैशाली की नगरवधू.djvu/११३

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23. जीवक कौमारभृत्य

"तुम्हीं वह वैद्य हो?"

"वैद्य तो मैं हूं। परन्तु 'वह' हूं या नहीं, नहीं कह सकता।"

"कहां के?"

"राजगृह का हूं, पर शिक्षा तक्षशिला में पाई है।"

"आचार्य आत्रेय के शिष्य तुम्हीं हो?"

"मैं ही हूं।"

"तब ठीक।" राजकुमार विदूडभ ने थोड़ा नम्र होकर कहा—"बैठ जाओ मित्र।"

युवक वैद्य चुपचाप बैठ गया। उसकी आयु कोई 26 वर्ष की थी। उसका रंग गौर, नेत्र काले-उज्ज्वल, माथा चौड़ा, बाल सघन काले और चिबुक मोटी थी। वह एक महार्घ दुशाला कमर में बांधे था। उस पर सुनहरा कमर-बंद बंधा था, एक मूल्यवान् उत्तरीय उसके कन्धे पर बेपरवाही से पड़ा था। पैरों में सुनहरी काम के जूते थे।

विदूडभ ने कुछ देर घूर-घूरकर तरुण वैद्य को देखा। फिर कहा—"तुम्हारी जन्मभूमि क्या राजगृह ही है?"

"जी हां, जहां तक मुझे स्मरण है।"

"राजगृह बड़ा मनोहर नगर है मित्र, परन्तु राजगृह से तुम क्या बहुत दिनों से बाहर हो?"

"प्रायः सोलह वर्ष से।"

"तो तुम तक्षशिला में भगवान् आत्रेय के प्रधान शिष्य रहे?"

"मैं उनका एक नगण्य शिष्य हूं। वास्तव में मैं कौमारभृत्य हूं।"

"मैंने तुम्हारी प्रशंसा सुनी है मित्र, तुम तरुण अवश्य हो पर तारुण्य गुणों का विरोधी तो नहीं होता।"

"क्या मैं युवराज की कोई सेवा कर सकता हूं?"

"मैं वैद्यों के अधिकार से परे हूं मित्र, देखते हो मेरा शरीर हर तरह दृढ़ और नीरोग है। फिर भी मैं तुम्हारी मित्रता चाहता हूं।"

"मेरी सेवाएं उपस्थित हैं।"

"क्या तुम्हें मित्र, पिता के स्वर्ण-रत्न का बहुत मोह है?"

"स्वर्ण-रत्न का मुझे कभी भी मोह नहीं हुआ।"

"यह अच्छा है और एक सच्चे मित्र का?"

"उसकी मुझे बड़ी आवश्यकता है, युवराज।"

"तो तुम मुझे आज से अपना मित्र स्वीकार करोगे, अन्तरंग मित्र?"

"परन्तु मैं दरिद्र वैद्य हूं, जिस पर राज-नियमों से अपरिचित हूं।"