राजाओं के पापों का समर्थन करनेवाले ब्राह्मण नहीं हैं। ब्रह्म और आत्मा का पाखण्ड नहीं है। उन्होंने जीवन का सत्य देखा है, वे इसी का लोक में प्रचार कर रहे हैं। उधर अनार्य अश्वग्रीव और हिरण्यकशिपु ने वेद पढ़ना, सुनना और यज्ञ करना अपराध घोषित कर दिया है। उसके लिए प्राण-दण्ड नियत है।"
"जितनी जल्दी आर्यों का नाश हो, उतना ही अच्छा है वैद्यराज।"
"बेचारे शूद्रों को भारी विपत्ति का सामना करना पड़ रहा है।"
"वह क्यों?"
"उन्हें उच्च वर्ण की स्त्री लेने का अधिकार नहीं। उनकी युवती और सुन्दरी कन्याओं को ये आर्य युवा होने से प्रथम ही या तो खरीद लेते हैं या हरण कर लेते हैं और वे द्रविड़ों, दस्युओं तथा असुरों से स्त्रियां जैसे-तैसे जुटा पाते हैं। आर्यों के घरों में जहां स्त्रियों की फौज भरी रहती है, वहां उन बेचारों के अनेक तरुण कुमार ही रह जाते हैं। इन्हें आजीवन स्त्री नहीं मिलती। एक-एक स्त्री के लिए वे खून-खराबी तक करते हैं।"
"किन्तु मित्र, क्या आर्यों का नाश होने पर कोई महा अनिष्ट आ खड़ा होगा?"
"कुछ भी नहीं मित्र, आर्यत्व का घमण्ड ही थोथा है। रक्त की शुद्धता का तो पाखण्ड-ही-पाखण्ड है। दस्यु और शूद्र-पर्यन्त रक्त उनकी नाड़ियों में है। फिर जिन्हें वे अनार्य या संकर कहते हैं, उनमें उन्हीं का तो रक्त है। वास्तव में विश्व के मनुष्यों की एक ही सार्वभौम जाति होनी चाहिए।"
"किन्तु मित्र, शताब्दियों से रूढ़िबद्ध ये आर्य, केवल वर्णों ही में बद्ध नहीं। इस ब्राह्मणत्व और राजत्व में बड़ी भारी भोग-लिप्सा भी है।"
"ऐसा तो है ही राजपुत्र, इसी से तथागत ने इस वर्ण-व्यवस्था की जड़ पर प्रथम कुठाराघात किया है। उन्होंने लोहे के खड्ग से नहीं, ज्ञान, तर्क और सत्य के खड्ग से ब्राह्मणों और क्षत्रों के सम्पूर्ण मायाजाल को छिन्न-भिन्न कर दिया है। आप देखते नहीं हैं कि देश के बाहर से आए हुए जिन यवन, शक, गुर्जर और आभीरों को ये ब्राह्मण म्लेच्छ कहकर घृणा करते थे, उन्हें ही तथागत ने अपने संघशासन में ले लिया है और उन्हें मनुष्यता के अधिकार दिए हैं। तुम देखोगे कि बहुत शीघ्र ही भारत से जाति-भेद और ऊंच-नीच के भेद मिट जाएंगे। तथागत को जाति-वर्ण-भेद उठाते देख ब्राह्मणों ने अब वर्ण-बहिष्कृत लोगों को ऊंचे-ऊंचे वर्ण देने शुरू कर दिए हैं, पर अब इस फन्दे से क्या?"
विदूडभ कुछ देर सोचते रहे। तरुण वैद्य ने कहा, "आप विचार तो कीजिए कि किस भांति इन लालची ब्राह्मणों ने अपने को राजाओं के हाथ बेच रखा है। एक दिन था मित्र, मैं भी इस वर्णव्यवस्था के मायाजाल में था। जब मैं उज्जयिनी में वेद, व्याकरण निरुक्त और काव्य पढ़ रहा था। अपने सहपाठी नागरों और यौधेयों को झुझार और विश कहकर ब्राह्मण बटुक चिढ़ाया करते थे। पर जब मैंने भरुकच्छ में जाकर असली समृद्ध यवनों और उनके वैभव को देखा; लाट, सौराष्ट्र और उज्जयिनी के शक-आभीर महाक्षत्रपों के वैभव और शौर्य को देखा, पक्व नारंगी के समान गालोंवाले, श्मश्रुहीन मुख और गोल-गोल आंखोंवाले निर्बुद्धि किन्तु दुर्धर्ष हूणों को देखा, तो मुझ पर इन आर्यों के आधार रूप ब्राह्मणों और उनके हथियार वेदों तथा क्षत्रियों और उनके हथियार पुनर्जन्म और ब्रह्म की कलई खुल गई। जो शताब्दियों तक मूर्ख जनता को शांत और निरुपाय अनुगत बनाने का