पृष्ठ:वैशाली की नगरवधू.djvu/१२२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।

"इसका क्या मतलब है?"

"अरे मोघपुरुष, तू मतलब पूछता है? क्या तू नहीं जानता कि तू नियुक्त है? जा, तेरी नियुक्ति समाप्त हुई। मेरा कार्य पूरा हुआ। तूने कहा था कि तू कृत-संकल्प है। जा, अपना संकल्प पूर्ण कर।"

"तो क्या मैं अब तेरा कृतपुण्य पुत्र नहीं?"

"नहीं रे मोघपुरुष, नहीं!"

"तो मैं राजद्वार में अभियोग उपस्थित करता हूं कि तू मुझ पुत्र को वंचित करती है। मैं कृतपुण्य हूं, यह सभी जानते हैं।"

"तो तू अभियोग उपस्थित कर, मैं कहूंगी, इस वंचक ने मेरा पुत्र बनकर मुझे ठगा है, मेरा कुल कलंकित किया है, तुझे शूली मिलेगी। अरे मोघपुरुष, तू कब मेरा कृतपुण्य था!"

मध्यमा ने आकर कहा—"मातः, यह विवाद ठीक नहीं है। इससे कुल कलंकित होगा तथा तेरे पौत्र अवैधानिक प्रमाणित होंगे और सम्पत्ति उन्हें नहीं मिलेगी।"

"तो तू क्या कहती है कि मैं इस धूर्त को जीवन-भर सिर पर लादे फिरूं? और वह मेरे पुत्र और पति की सम्पत्ति और मेरी वधुओं का आजीवन भोक्ता बना रहे?"

"तो उसे शुल्क देकर विदा कर दो।"

"कैसा शुल्क?"

हर्षदेव ने क्रुद्ध होकर कहा—

"क्या तूने शुल्क देने का वचन नहीं दिया था?"

"पर तूने खाया-पीया भी तो है; अरे भिक्षुक मोघपुरुष, स्मरण कर उस दिन को, जब तू चीथड़े पहने जंगल में भटक रहा था। तीन वर्षों में कितना खाया है रे पेटू, तनिक हिसाब तो लगा?"

"अरी कृत्या, तू अब मेरा पेट नापती है! नहीं जानती, मैं सामन्त हूं। अभी खड्ग से तेरा शिरच्छेद करूंगा।" हर्षदेव क्रुद्ध होकर खड्ग निकालने लगा।

बुढ़िया डर गई। वह ज़ोर-ज़ोर से रोने लगी। मध्यमा ने कहा—"मातः, अभी सब वीथिवासी आ जाएंगे, भेद खुल जाएगा, तेरा कुल दूषित होगा।"

"तो यह मोघपुरुष अभी मेरे घर से चला जाए।"

हर्षदेव ने कहा—"अभी जाता हूं , परन्तु तुझ कुट्टनी की प्रतिष्ठा के लिए नहीं, अपनी प्रतिष्ठा के लिए।" इसके बाद उसने सार्थवाह से कहा—" हन्त मित्र, मैं तुम्हारा अश्व इस समय नहीं खरीद सकता, अश्व ले जाओ और तुम्हें जो कष्ट हुआ, उसके लिए यह मुद्रिका ले लो।"

इसके बाद हर्षदेव सब बहुमूल्य वस्त्रालंकार उतार-उतारकर फेंकने लगा। केवल एक प्रावार अंग से लपेटकर चलने के लिए उठ खड़ा हुआ।

चारों वधूटियां आंखों में आंसू भर खड़ी देखती रहीं। मध्यमा ने आगे बढ़कर कहा—"भद्र, यों नहीं यह कुल-मर्यादा के विपरीत है। एक मुहूर्त-भर ठहरो, मैं पाथेय तैयार करती हूं। पाथेय साथ लेकर जाना।"

बुढ़िया ने बाधा नहीं दी और हर्षदेव ने भी मौन स्वीकृति दी। मध्यमा ने बहुत-सा