पृष्ठ:वैशाली की नगरवधू.djvu/१४५

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कठिन समय में ऐसे तेजस्वी वचन कहने वाले?"

"भन्ते सेनापति, मेरा नाम सोमप्रभ है। मैं राजगृह से सहायता लेकर आया हूं। यह आर्य वर्षकार का पत्र है।"

युवक के वचन सुनकर सभी उत्सुकता से उसकी ओर देखने लगे। सेनापति ने पत्र लेकर मुहर तोड़ी और शीघ्रता से उसे पढ़ा। फिर कुछ चिन्तित होकर कहा—"परन्तु सहायता कहां है सौम्य? आर्य वर्षकार का आदेश है कि बैशाखी के दिन चम्पा में प्रवेश करना होगा।"

"वह प्रच्छन्न है, भन्ते सेनापति।"

"परन्तु हमारा कार्यक्रम?"

"क्या मैं निवेदन करूं आर्य?"

"अवश्य, आर्य वर्षकार ने तुम्हारे विषय में मुझे कुछ आदेश दिए हैं।"

"तब ठीक है। बैशाखी के दिन सूर्योदय होने पर चम्पावासी जो दृश्य देखेंगे, वह चम्पा दुर्ग पर फहराता हुआ मागधी झण्डा होगा।"

"परन्तु यह तो असाध्य-साधन है आयुष्मान्! यह कैसे होगा?"

"यह मुझ पर छोड़ दीजिए, भन्ते सेनापति।"

सेनापति ने अब अचानक कुछ स्मरण करके कहा—"परन्तु तुम शिविर में कैसे चले आए सौम्य?"

"किसी भांति आज का संकेत-शब्द जान गया था भन्ते।"

"यह तो साधारण बात नहीं है आयुष्मान्।"

"भन्ते, सोमप्रभ साधारण तरुण नहीं है।"

"सो तो देखूंगा, पर तुम करना क्या चाहते हो?"

"अभी हमारे पास चार दिन हैं। इस बीच में बहुत काम हो जाएगा।"

"पर चार दिन हम खाएंगे क्या?"

"आज रात को रसद मिल जाएगी।"

"परन्तु प्रतिरोध कैसे पूरा होगा? हमारे पास तो युद्ध के योग्य..."

'एक सौ सशस्त्र योद्धा आज रात को आपके पास पहुंच जाएंगे?"

"केवल एक सौ!"

"आपको करना ही क्या है भन्ते! केवल प्रतिरोध ही न?"

"परन्तु शत्रु के बाण जो हमें बेधे डालते हैं। हमारे पास रक्षा का कोई साधन नहीं है।"

"यह तो बहुत सरल है भन्ते! उधर बहुत-सी टूटी नौकाएं पड़ी हैं, उनमें रेत भरकर उनकी आड़ में मजे से प्रतिरोध किया जा सकता है। मैंने सिन्धुनद के युद्ध में गान्धारों का वह कौशल देखा है।"

"तुम क्या गान्धार हो वत्स?"

"नहीं, मागध हूं। मैंने तक्षशिला में आचार्यपाद बहुलाश्व से शिक्षा पाई है।"

"अरे आयुष्मान्! तुम वयस्य बहुलाश्व के अन्तेवासी हो। साधु, साधु! तुम्हारी युक्ति बहुत अच्छी है।"