"तो यही सही प्रिये कुण्डनी, तुम्हारा नृत्य भी दिव्य है।"
कुण्डनी ने चषक महाराज के मुंह से लगाकर नृत्य की तैयारी की। धीरे-धीरे उसके चरणों की गति बढ़ने लगी। महाराज दधिवाहन स्वयं मृदंग बजाने लगे। कुण्डनी ने प्रत्येक सम पर महाराज के निकट चुम्बन निवेदन करना प्रारम्भ कर दिया और हर बार उस दुष्प्राप्य चुम्बन को प्राप्त न कर सकने पर चंपाधिपति अधीर हो गए। नृत्य की गति बढ़ती गई और मृदंग का गंभीर रव उस टूटती रात में एक उन्मत्त वातावरण उत्पन्न करने लगा। उस एकांत रात में अनावृत्त सुन्दरी कुण्डनी की मनोरम देह नृत्य की अनुपम शोभा विस्तार कर रही थी और कामवेग से महाराज दधिवाहन के रक्त की गति असंयत हो गई थी। कुण्डनी ने अपनी चोली से थैली निकाली और उसमें से महानाग ने अपना फन निकालकर कुण्डनी के मुंह के साथ नृत्य करना प्रारम्भ किया। महाराज दधिवाहन एक बार भीत हुए, परन्तु मद्य के प्रभाव से वे असंयत होकर भी मृदंग बजाते रहे। उनका सारा शरीर पसीने से लथपथ हो गया था। परन्तु कुण्डनी की चरण-गति अब दुर्धर्ष हो रही थी। इसी समय उसने अपने अधरों पर दंश लिया।
नागराज कुण्डनी का अधर-चुम्बन कर शान्त-भाव से उसी बहुमूल्य थैली में बैठ गए। विष की ज्वाला से कुण्डनी लहराने लगी। नृत्य से थकित और दंश से विवश और उसकी पुष्पाभरण-भूषित सुरभित देहयष्टि धीरे-धीरे महाराज दधिवाहन के निकट और निकट आकर नृत्य की नूतनतम कला का विस्तार करने लगी। विलास और शृंगार का उद्दाम भाव उसके नेत्रों में आ व्यापा।
महाराज दधिवाहन ने मृदंग फेंककर कुण्डनी को आलिंगन-पाश में कस लिया और कुण्डनी फूलों के एक ढेर की भांति महाराज दधिवाहन के ऊपर झुक गई। महाराज दधिवाहन ने ज्यों ही कुण्डनी का अधरोष्ठ चुम्बन किया त्योंही वह तत्काल मृत होकर पृथ्वी पर गिर गए। कुण्डनी हांफते-हांफते एक ओर खड़ी होकर उनके निष्प्राण शरीर को देखने लगी।