पृष्ठ:वैशाली की नगरवधू.djvu/१७९

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बिम्बसार के जलते हुए सूने जीवन में प्यार की एक बूंद टपका दो। देवी अम्बपाली, प्रिये, मैं आज से नहीं, कब से तुम्हारी बाट जोह रहा हूं। तुमने सदैव मेरी भेंट अस्वीकार करके लौटा दी, मुझे दर्शन देना भी नहीं स्वीकार किया। किन्तु आज प्रिये, मैंने अनायास ही तुम्हें पा लिया। ओह, प्रसेनजित् का ही यह प्रसाद मुझे मिला। आज हारकर ही मैं भाग्यशाली बना प्रिये अम्बपाली।"

सम्राट् उठ खड़े हुए और दोनों हाथ पसारकर अम्बपाली की ओर बढ़े।

अम्बपाली खड़ी हो गई। उसका हास्य उड़ गया। उसने सूखे कंठ से कहा "देव, संयत हों। मैं देव से ही सुविचार की अभिलाषा रखती हूं।"

"मैं अन्ततः सुविचार करूंगा प्रिये।"

"तो देव मेरा निवेदन है कि सम्राट की यह प्रणय-याचना निष्फल है।"

"आह प्रिये, तुमने तो एकबारगी ही आशाकुसुम दलित कर दिया।"

"सुनिए महाराज, आप सम्राट् हैं और मैं वेश्या। हम दोनों ने ही प्रणय के अधिकार खो दिए हैं।"

"किंत प्रिये हम मानव तो हैं, मानव के अधिकार?"

"वे भी हमने खो दिए।"

"तो जाने दो। कृमि-कीट, पतंग, पशु जितने प्राणी हैं, क्या उनकी भांति भी हम प्रेम का आनन्द नहीं ले सकते? दो निरीह पक्षियों की भांति भी नहीं...?"

"नहीं देव, नहीं। जैसे वेश्या होना मेरे लिए अभिशाप है, वैसे ही सम्राट् होना आपके लिए। प्रेम के राज्य में प्रवेश करना हम दोनों ही के लिए निषिद्ध है। हम लोग प्रेम का पुनीत प्रसाद पाने के अधिकारी ही नहीं रहे।"

"तब आओ प्रिये, हम इस अभिशाप को त्याग दें। मैं इस दूषित अभिशापित सम्राट पद को त्याग दूं और तुम...तुम..."

"इस...गर्हित वेश्या-जीवन को? सम्राट् यही कहा चाहते हैं? परन्तु यह संभव नहीं है देव। जैसे मैं अपनी इच्छा से वेश्या नहीं बनी हूं, उसी प्रकार आप भी अपनी इच्छा से सम्राट् नहीं बने। हम समाज के बन्धनों और कर्तव्यों के भार से दबे हैं, बचकर निकलने का कोई मार्ग ही नहीं है।"

"कोई मार्ग ही नहीं है? ओह, बड़ी भयानक बात है यह! प्रिये अम्बपाली, सखी, तो फिर क्या कोई आशा नहीं?"

सम्राट ने वेदनापूर्ण दृष्टि से अम्बपाली को देखा। वे धम से आसन पर बैठ गए। अम्बपाली ने खोखले स्वर से नीचे दृष्टि करके कहा—"आशा क्यों नहीं है सम्राट्, बहुत आशा है।"

"ओह तो प्रिये, फिर झटपट मेरे सौभाग्य का विस्तार करो।" वे फिर उठकर और दोनों हाथ फैलाकर अम्बपाली की ओर चले।

अम्बपाली ने पत्थर की मूर्ति की भांति स्थिर बैठकर कहा—"देव! आप आसन पर विराजमान हों। मैं निवेदन करती हूं। हमारी आशा यही है देव, कि में वैश्या हूं और आप सम्राट् हैं।"

"यह कैसी बात प्रिये? यही तो हमारा परम दुर्भाग्य है!"