पृष्ठ:वैशाली की नगरवधू.djvu/१८३

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"वह क्या?"

भगवत्पाद क्षण-भर गहन चिन्ता में डूबे रहे, फिर जलद-गंभीर वाणी में बोले—"शुभे अम्बपाली, तुम विश्वविश्रुत साध्वी प्रसिद्ध होगी।"

"भगवन्! मैं अधम वेश्या..."

"शुभे, जिसके चरणतल की अपेक्षा मगध-साम्राज्य का चक्र भी लघु है, उसे यह आत्म-प्रतारणा शोभा नहीं देती।" फिर उन्होंने भाव-गंभीर हो दोनों हाथ उठाकर कहा—"तुम्हारा कल्याण हो, परन्तु तुम वैशाली की जनपद-कल्याणी हो। एक बार तुमने आत्मदान करके वैशाली को गृहयुद्ध से बचा लिया था, अब अपने तामसिक रोष में जनपद का अनिष्ट न करना। व्यक्ति से समष्टि की प्रतिष्ठा भी बड़ी है, स्वार्थ भी बड़ा है। व्यक्ति का स्वार्थ हेय है, परन्तु समष्टि का स्वार्थ उपादेय।" भगवत्पाद यह कहकर कुछ देर मौन रहे! फिर बोले—"त्याग संसार में महाश्रेष्ठ है, त्याग से अरिष्ट-अनिष्ट सब टल जाते हैं। तुम जब देखो कि तुम्हारे द्वारा वैशाली का, उत्तराखंड के इस एकमात्र गणतन्त्र का अनिष्ट हो रहा है, तब कोई महान् त्याग करना, अनिष्ट टल जाएगा। मेरा यह वचन भूलना नहीं शुभे, नहीं तो वह महासौभाग्य तुम्हें प्राप्त नहीं होगा।"

"मैं याद रखूंगी भगवन्!"

"तुम्हारा कल्याण हो भद्रे, अब तुम अपने आवास को जाओ।"

अम्बपाली बड़ी देर तक भगवान् वादरायण व्यास के चरणों में चुपचाप पृथ्वी पर पड़ी रही। फिर आंखों में आंसू बहाती हुई उठकर चल दी।