पृष्ठ:वैशाली की नगरवधू.djvu/१९१

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"अब तुम राजगृह लौट जाओ कुण्डनी, अब मेरे तुम्हारे मार्ग दो हैं।"

"परन्तु उद्देश्य एक ही है।"

"संभवतः वे भी दो हैं। तुम राजसेवा करो।"

"और तुम?"

"मैं राजकुमारी की सेवा करूंगा।"

कुण्डनी हंस दी। उसने निकट स्नेह से सोम के सिर पर हाथ रखा और स्निग्ध स्वर में कहा—

"सोम, तुम्हें मालूम है, कुण्डनी तुम्हारी भगिनी है।"

"जानता हूं।"

"सो तुम्हारा एकान्त हित कुण्डनी को छोड़ और दूसरा कौन करेगा?"

"तो तुम मेरा हित करो।"

"क्या करूं, कहो?"

"राज-सेवा त्याग दो।"

कुण्डनी ने हंसकर कहा—"और तुम्हारे साथ रहकर राजकुमारी की सेवा करूं?"

"इसमें हंसने की क्या बात है कुण्डनी? क्या यह सेवा नहीं है?"

"है।"

"फिर?"

"उनकी सेवा कर दी गई।"

"अर्थात् उन्हें रानी से राह की भिखारिणी और अनाथ बना दिया गया?" सोम ने उत्तेजित होकर कहा।

"यह कार्य तो हमारा नहीं था, राजकार्य था प्रिय। हमने तो विपन्नावस्था में उनका मित्र के समान साथ दिया है।"

"तो कुण्डनी, अब उनका क्या होगा? सोचो तो!"

"कुछ हो ही जाएगा। जल्दी क्या है! अभी तो हम श्रावस्ती जा ही रहे हैं।"

"नहीं, मैं राजकुमारी को वहां नहीं ले जाऊंगा।"

"उन्हें कहां ले जाओगे?"

"पृथ्वी के उस छोर पर जहां हम दोनों अकेले रहें।"

"कुण्डनी को कहां छोड़ोगे?" कुण्डनी हंस दी, उसने फिर सोम के सिर पर हाथ फेरते हुए कहा—

"यह ठीक नहीं है, प्रिय।"

"तब?"

"विचार करो, राजकुमारी क्या सहमत होंगी?"

"मैं कह दूंगा कि मैं दास नहीं हूं..."

"... और मागध हूं, उसका पितृहन्ता और राज्यविध्वंसक शत्रु!"

"किन्तु, किन्तु..."

सोम उत्तेजित होकर पागल की भांति चीख उठे, उन्होंने कहा—

"मैं उन्हें चम्पा की गद्दी पर बैठाऊंगा। मैं मगध से विद्रोह करूंगा।"