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अथवा उनके सहकारी को मिल जाय।"
"और कुछ कहना भी होगा, आर्य?"
"नहीं, यहां से यों ही जाना होगा प्रभंजन। मार्ग में एक अश्व खरीद लेना। किन्तु वह साधारण ही हो, जिसमें किसी को सन्देह न हो और तुम दस्युओं की दृष्टि में न पड़ो। हां, श्रावस्ती से लौटकर तुम वैशाली के मार्ग में मेरी प्रतीक्षा करना। जाओ तुम प्रभंजन।"
प्रभंजन ने अभिवादन किया और तेज़ी से अन्धकार में विलीन हो गया। अमात्य कोठरी का द्वार बन्द कर दीपक सामने रख लेख लिखने में व्यस्त हो गए। यह किसी को भी नहीं प्रतीत हुआ कि इस नापित-गुरु की इस खरकुटी की एक कोठरी में बैठे 'महामहिम मगध-महामात्य' महाराजनीति-चक्र चला रहे हैं।