यथासमय सम्राट् भद्रा सेट्ठिनी के आवास में अपने सम्पूर्ण राजवैभव के साथ पधारे। भद्रा ने सम्राट को हर्म्य के चौथे खण्ड में जाकर उनका मर्यादा के अनुकूल अनुपम सत्कार किया। फिर उसने पुत्र की प्रधान दासी द्वारा पुत्र के पास संदेश भेजा कि सम्राट तुझसे मिलने हमारे घर पधारे हैं, तू आ।
संदेश सुनकर शालिभद्र ने माता से कहा—"सम्राट को जो कुछ देना-दिलाना हो, देकर विदा कर दो। मेरा वहां क्या काम है?"
इस पर भद्रा सेट्ठिनी स्वयं पुत्र के पास गई और उसे समझाया—"पुत्र, हम सब श्रेणिय सम्राट् की प्रजा हैं। उन्होंने तुझे राजमहालय में बुलाया था, परन्तु मेरी विनय स्वीकार करके वे तुझे देखने स्वयं यहां पधारे हैं और चौथे खण्ड पर बैठे हैं। इसलिए दो तीन खण्ड नीचे उतरकर तुझे उनसे मिलना चाहिए।"
सेट्ठिकुमार शालिभद्र ने 'चाहिए' शब्द पहली ही बार माता के मुंह से सुना, सुनकर उसका मन उदास हो गया। वह सोचने लगा—"यह तो पराधनीता है, इस पराधीनता में ये सुखभोग किस काम के? मनुष्य को जब तक दूसरे किसी की पराधीनता भोगनी है, तो फिर सुख तो नाममात्र का ही सुख है। वह विमन भाव से सम्राट के निकट आया। सम्राट् को प्रणाम किया और बिना एक शब्द बोले, बिना एक क्षण ठहरे ऊपर चला गया। परन्तु इस विवशता की चुभन उसके हृदय में घर कर गई और वह अत्यन्त उदास हो शयन-कक्ष में जा पड़ा।