वे श्रेष्ठा सुकुमारी श्रीमन्तकुमारी भी एक-एक कर कठिन व्रत लेती गईं।
शालिभद्र की छोटी बहिन राजगृह ही में धन्य सेट्ठि को ब्याही थी। उसने जब यह सुना तो वह बहुत रोई तथा रोते-रोते भाई के कठोर व्रत धारण करने की बात पति से कहने लगी।
धन्य सेट्ठि ने उसकी हंसी उड़ाते हुए हंसकर कहा—"अरी, चिन्ता न कर, रोज़-रोज़ एक-एक स्त्री की शय्या त्यागने वाला साधु नहीं हो सकता।"
इस पर उसकी स्त्री ने क्रुद्ध होकर ताना मारा और कहा—"तुम्हें यदि यह काम इतना सहज दीखता हो तो तुम्हीं न साधु हो जाओ।"
धन्य सेट्ठि को पत्नी की बात चुभ गई और उसने उसी क्षण सर्वजित् महावीर के पास जाकर दीक्षा ले ली। शालिभद्र ने जब यह सुना तो वह भी घर से निकल चला और उसने भी महावीर से दीक्षा ली।
दोनों सेट्ठियों ने सर्वजित् महावीर का उपदेश अङ्गीभूत करके खड्ग की धार के समान तीक्ष्ण तप करना प्रारम्भ किया। बिना शरीर की परवाह किए वे साप्ताहिक, पाक्षिक, मासिक, द्विमासिक उपवास करने लगे। इससे उनका शरीर केवल हाड़ पर मढ़े चर्म की मूर्ति-सा हो गया।
श्रमण महावीर तब राजगृह में चातुर्मास व्यतीत कर रहे थे। द्विमासिक उपवास करने के बाद जब पारण करने के लिए भिक्षा मांगने की उन्होंने अनुमति मांगी, तब महावीर ने कहा—"अपने घर जाकर अपनी माता से भिक्षा ग्रहण कर पारण करो।"
तब शालिभद्र और धन्य दोनों ही चुपचाप जाकर भद्रा सेट्ठिनी के द्वार पर खड़े हो गए।
पुत्र की व्रत-समाप्ति और पारण की सूचना भद्रा-सेट्ठिनी को लग चकी थी। वह पुत्र का पारण सम्पूर्ण कराने को जल्दी-जल्दी चलकर, जहां सर्वजित् महावीर थे, वहां पहुंची। जल्दी में द्वार पर उपवास से कृशांगीभूत पुत्र और जामाता को खड़ा देखकर उसने पहचाना नहीं। कुछ देर वहां खड़े रहकर वे पीछे लौटे, मार्ग में एक ग्वालिन ने उन्हें पारण कराया। लौटकर उन्होंने श्रमण से अन्तिम व्रत-अनुष्ठान की अनुमति मांगी। अनुमति मिलने पर वे वैभार गिरि पर चले गए।
भद्रा ने श्रमण के पास पहुंचकर अपने पुत्र और जामाता के सम्बन्ध में प्रश्न किए। महावीर ने कहा—
"वे तेरे द्वार पर भिक्षा के लिए गए थे। परन्तु यहां आने की उतावली में तूने उन्हें पहचाना नहीं। अब वे दोनों मुनि मेरे निकट अन्तिम अनशन व्रत ग्रहण कर संसार से मुक्त होने के विचार से अभी-अभी वैभार गिरि पर चले गए हैं।"
अन्तिम अनशनों की बात सुनकर भद्रा सेट्ठिनी का हृदय विदीर्ण हो गया। सम्राट बिम्बसार ने भी सुना और वे आए। दोनों ने वैभार गिरि पर जाकर देखा—दोनों मुनि शांत स्थिर मुद्रा में शिलाखण्ड के सहारे स्थिर पड़े हैं। देखकर भद्रा विलाप करने लगी। वह द्विमासिक उपवास के बाद स्वेच्छा से भिक्षा के लिए द्वार पर आए पुत्र को न पहचानने के लिए अपने को तथा स्त्री-जाति को बारम्बार धिक्कार देने लगी। श्रेणिक बिम्बसार ने उसे समझाया और कहा—"भद्रे सेट्ठिनी, अब अन्तिम व्रत में उपवेशित पुत्र को अपने रुदन से