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पृष्ठ:वैशाली की नगरवधू.djvu/२३७

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अनाथपिण्डिक ने कहा-

"ऐसा ही हो भन्ते!"

तब महाश्रमण बुद्ध ने अनाथपिण्डिक के दान को अनुमोदित करते हुए गाथा कही-

"सर्दी, गर्मी और क्रूर जन्तुओं से रक्षा करता है। सरीसृप, मच्छर, शिशिर, वर्षा, हवा-पानी से बचाता है। आश्रय के लिए, सुख के लिए, ध्यान के लिए, विपथ्यन के लिए, संघ को विहार का दान श्रेष्ठ है। रमणीय विहार बनवाकर वहां बहुश्रुतों को बसाकर, उन्हें अन्न-पान-वस्त्र और शयन-आसन प्रसन्नचित्त से प्रदान करें।"

तब दर्भ मल्लपुत्र ने आकर तथागत से कहा-

"भन्ते, यदि अनुमति हो तो मैं संघ के शयन-आसन का प्रबन्ध करूं?"

"साधु, साधु, दर्भ! तू संघ के शयन-आसन और भोजन का प्रबन्ध कर?"

फिर उन्होंने भिक्षुसंघ को एकत्रित करके कहा-"भिक्षुओं, संघ दर्भ मल्लपुत्र को संघ के शयन-आसन का प्रबन्धक और भोजन का नियामक चुने।"

संघ ने दर्भ मल्लपुत्र को चुन लिया। तब मल्लपुत्र ने भिक्षुओं का एक-एक स्थान पर शयन-आसन प्रज्ञापित किया। जो सूत्रात्तिक थे उनका एक स्थान पर, जो विनयधर थे उनका दूसरे स्थान पर, जो धर्मकथित थे वे तीसरे स्थान पर, इसी प्रकार दर्भ मल्लपुत्र ने सम्पूर्ण भिक्षु-संघ को प्रज्ञापित किया। गृध्रकूट, चौरप्रताप, ऋषिगिरि की कालशिला, वैभार शृंग, सप्तपर्णी गुहा, सीतवन, सर्वशौंडिक, प्राग्भार, गौतम कन्दरा, कपोत कन्दरा, पोताराम, आम्रवन, मद्रकुक्षि, मृगदाव-सर्वत्र दर्भ मल्लपुत्र ने तेजोधातु की समापत्ति के प्रकाश में भिक्षुसंघ का शयन-आसन प्रज्ञापित किया। वे यत्न से प्रत्येक भिक्षु को बताते-यह मंच है, यह पीठ है, यह भित्ति है। यह बिम्बोहन है, यह कतर-दण्ड है, यह संघ का कतिक संथान है।

दर्भ मल्लपुत्र के अन्तेवासी भाण्डागारिक, चीवर-प्रतिग्राहक चीवरभाजक, यवागूभाजक, फल-भाजक, खाद्य-भाजक, शाटिक-ग्राहक, आरामिक-प्रेषक, श्रामणेर-प्रेषक आदि भिक्षु-संघ से चुने हुए भिन्न-भिन्न विहारों के लिए नियत हुए।