पृष्ठ:वैशाली की नगरवधू.djvu/२४५

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“ यह बहुत अच्छा है आयुष्मान्! और एक बात याद रखो। " " वह क्या आचार्य ? " " वही करो जो उचित है। " " उचित क्या है ? " “ जो आवश्यक है , वही उचित है आयुष्मान्। ” विदूडभ ने हंसकर कहा - “ आचार्य, आपका धर्म गौतम की अपेक्षा बहुत अच्छा है । " “ परन्तु आयुष्मान्, यह धर्म - पदार्थ एक महा असत्य वस्तु है। इसे केवल पर - धन हरण करने और उसे शान्ति से उपभोग करने के लिए ही कुछ चतुरजनों ने अपनाया है । इससे प्रिय , तुम किसी की ठगाई में न आना। धर्म के सत्य रूप को समझना और उससे भय न करना । उससे काम लेना और जो उचित हो , वही करना। " _ “ समझ गया आचार्य ! राजगृह के उस तरुण वैद्य के पास कुछ अति भयंकर विष हैं , परन्तु वह उनसे काम लेना जानता है। वह जो उचित है, वही करता है । वह कहता है , ऐसा करने से ये सब भयानक विष अमृत का काम देते हैं , उनसे मृतप्राय आदमी जी उठते हैं । " “ ऐसा ही है आयुष्मान्! अब तुम इस त त्त्व को भली - भांति समझ गए । अब जाओ तुम प्रिय , तुरन्त साकेत जाकर शुभ कार्य का अनुष्ठान करो। " " अच्छा भन्ते ! ” कहकर राजकुमार ने उठकर आचार्य को अभिवादन किया और आचार्य ने दोनों हाथ उठाकर उसे आशीर्वाद दिया । राजकुमार विदा हुए ।