" हां महाराज ! ” बन्धुल ने क्रुद्ध स्वर में कहा । “ पत्र किसे लिखा गया है ? " " कोटपाल को । " " तुम पर यह अभिसंधि कैसे प्रकट हुई पुत्र ? " " मेरे चर द्वारा । " “ श्रावस्ती क्यों गए ? " “ नगर का प्रबन्ध देखने तथा पत्रवाहक मिल जाय तो विशेष समाचार जानने। " " तो पुत्र , अब करना क्या है ? " “ यह सेनापति बंधुल कहेंगे। वे महाराज के विश्वासपात्र और वीर हैं । " " तुम भी कहो पुत्र । " " महाराज जानते हैं कि मेरा मत महाराज से नहीं मिलता । " “किन्तु यह कोसल की प्रतिष्ठा का प्रश्न है पुत्र ! " “ इसी से मैं श्रावस्ती गया था महाराज! ” । " तो बंधुल , तुम सीमांत को अभी प्रयाण करो और कारायण को बंदी करके यहां भेज दो । " “ मैं विरोध करता हूं महाराज ! " " क्यों पुत्र ? " “ सेनापति की यहां अधिक आवश्यकता है। " " परन्तु सीमांत पर और भी अधिक । " " वहां सेनापति के बारहों पुत्र- परिजन जा सकते हैं । वह सब वीर और योद्धा हैं और विश्वस्त भी हैं । आगा-पीछा सोचने योग्य भी हैं । " “ पर वे सब राजकाज में नियुक्त हैं पुत्र ! " “ राजधानी का कार्यभार मैं ग्रहण करता हूं महाराज! ” " तो बंधुल , यही ठीक है । वे सीमांत को तुरत बीस सहस्र नई सेना लेकर जाएं । " " नहीं महाराज , मेरी यह योजना है। ” विदूडभ ने कहा । “ वह क्या ? " “ यदि सब एकत्र सैन्य लेकर जाएंगे, तो शत्रु सावधान हो जाएगा। उसे भय उपस्थित हो सकता है । " " तुम्हारी योजना क्या है ? " “ वे बारहों बन्धुल - परिजन सैन्य बिना लिए महाराज के दूत के रूप में उपानय लेकर कौशाम्बीपति के पास जाएं और यज्ञ में उन्हें निमन्त्रण देकर उनकी रुचि देखें । सैन्य प्रच्छन्न रूप में पीछे-पीछे जाए , कोई योग्य सामन्त या सेनापति उसका संचालन करें । " “ युक्ति बुरी नहीं है; पर सैन्य - संचालन कौन करेगा ? " “ यह भन्ते सेनापति ठीक करें । " अब मल्ल बन्धुल ने मुंह खोला। उसने कहा " सैन्य की व्यवस्था हो जाएगी । राजकुमार की योजना उत्तम है। किन्तु कारायण ? "
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