महावीर का अभिप्राय यथारूप से कहा। कुमारी ने सुनकर कहा - “ तो हला कुण्डनी, जैसी भगवान् महाश्रमण की इच्छा है वैसा ही हो । तुम सोमभद्र से कहो कि जब तक आदेश न हो , वे यहां न आएं । यथासमय महाश्रमण स्वयं आदेश देंगे। " सोम कुण्डनी से कुमारी का यह उत्तर पाकर निराश और उदास रहने लगे । परन्तु सेनापति उदायि ने उन्हें कुछ आवश्यक आदेश दिए थे, वह उनके पालने में कई दिन तक बहुत व्यस्त रहे और एक प्रकार से उन्होंने कुमारी का ध्यान ही न किया । परन्तु अवसर पाते ही वह साकेत गए और राजकुमारी से भेंट की । उस समय कुमारी ने श्वेत पुष्प - गुच्छों का शृंगार कर श्वेत कौशेय धारण किया था । सोमप्रभ को देखते ही उनके नेत्र हंसने लगे । सोम ने अनुताप के स्वर में कहा “ संयत न रह सका राजनन्दिनी ! महाश्रमण के आदेश के विपरीत आने का दुःसाहस मैंने किया है। " “ यह तो ठीक नहीं हुआ , प्रियदर्शन! ” " परन्तु मैं क्या करूं कुमारी, तुम्हीं ने इस अकिंचन को बांध लिया ! " "प्रिय , ऐसा अधैर्य क्यों ? भगवान् महाश्रमण जानेंगे तब ? ” “प्रिये , तुम कह दो कि तुम मेरी हो , फिर मैं भगवान् महाश्रमण के प्रति अपराध का प्रायश्चित्त कर लूंगा। " " और यदि मैं कुछ न कहूं तो ? ” कुमारी ने हास्य छिपाते हुए कहा । सोम ने दो चरण आगे रख कुमारी का अंचल हाथ में ले घुटनों के बल बैठ चूम लिया । उन्होंने कहा - “प्रिये , चारुशीले , तुमने मुझे आप्यायित कर दिया , मैंने तुम्हारे नेत्रों में पढ़ लिया । " " तो भद्र, मुझे भी आप्यायित करो। " “ कहो प्रिये, मुझे क्या करना होगा ? " “ अब बिना महाश्रमण की आज्ञा लिए यहां मत आना भद्र! " " ओह , यह तो अति दुस्सह है । " “ सो क्या तुम्हारे ही लिए प्रिय ? " " तो प्रिये , मैं सहन करूंगा। " “ यही उत्तम है, धर्मसम्मत है, गुरुजन - अनुमोदित है। सोम प्रियदर्शन , अब तुम जाओ, कोई दासी हमें साथ देखे, यह शोभनीय नहीं है। " जैसी राजनन्दिनी की इच्छा ! " सोम बार -बार प्यासी चितवनों से कुमारी को फिर -फिर देखते हुए वाटिका से निकले और शीघ्र श्रावस्ती की ओर चल दिए ।
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