पृष्ठ:वैशाली की नगरवधू.djvu/२९४

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" शान्तं पापं ! महाराज क्या दांत तोड़कर उससे हीरक -कील निकालेंगे? " " ये दांत अब किस काम आएंगे देवी मल्लिका ? सब त्यागा तो दांतों का मोह क्यों ? फिर ये सब विगलित होकर चल -विचलित हो गए हैं । तोड़ने में अधिक कष्ट नहीं होगा। " । ___ मल्लिका कुछ न कहकर रोने लगीं । राजा ने घोड़े से उतरते हुए कहा - “ रोने से क्या लाभ , मल्लिके ? अश्व से उतर आओ। कोसल राज्य का यह चिह्न भी हमारे काम का नहीं। प्रिये , तुम माली की बेटी हो , क्या पुष्पमाल नहीं गूंथ सकतीं ? " “ अति बाल - काल में गूंथी थी महाराज, गूंथ सकूँगी । ” __ " तो प्रिये, मैं उसे गृहस्थों के हाथ बेच आऊंगा। हमारा पाथेय चल जाएगा । चलो , प्रिये ! ” राजा ने रानी का हाथ पकड़ा और वे दोनों पांव -प्यादे, कठोर , ऊबड़ - खाबड़ जन शून्य मार्ग पर अपने अनभ्यस्त चरणों से बढ़ चले । । दिन निकला , अस्त हुआ ; रात हुई, प्रभात हुआ । ये दोनों निरीह वृद्ध नियति - संतप्त राजदम्पती चलते ही चले गए । मार्ग में लोगों ने देखा , दया करके भोजन देना चाहा, पर उन्होंने उस ओर नहीं देखा । बहुतों ने नाम - धाम पूछा, उन्होंने उत्तर नहीं दिया । बहुतों ने मान किया , अपमान किया , उपहास किया, उन्होंने उनकी ओर नहीं देखा। चलते चले गए । उनके पैर लहू और घावों से भर गए, पिंडलियां तन गईं, वस्त्र गन्दे हो गए , वे झाड़ियों में उलझकर फट गए, मुंह सूख गया । भूख और प्यास से होठ जड़ हो गए। पर वे चलते ही चले गए। चलते ही चले गए । अन्त में वे राजगृह के द्वार पर जा पहुंचे। उस समय दो दण्ड रात्रि व्यतीत हो चुकी थी , द्वार बन्द थे। उन्होंने थकित वाणी से द्वारी से कहा - “मित्र , द्वार खोल । " । दो वृद्ध निरीह भिक्षुक पुरुष - स्त्री को अवज्ञा की दृष्टि से देखकर द्वारी ने कहा - " क्या तुम्हारे आदेश से ? " “ आदेश नहीं मित्र, परन्तु हम दूर से आ रहे हैं । " " तो उधर चैत्य में स्थान है, रात - भर रहो। प्रातः द्वार खुलने पर नगर में जाना । " राजा ने निराश दृष्टि से रानी की ओर देखा । उनमें खड़े होने और बोलने की शक्ति नहीं रही थी । रानी ने मन्द स्वर से कहा ___ " ऐसा ही हो महाराज ! ” । राजा ने मुद्रिका उंगली से निकालकर दौवारिक को देते हुए कहा - “ तो मित्र , यह मुद्रिका अपने स्वामी मगध के सम्राट् श्रेणिक बिम्बसार के लिए है , यह श्रेणिक बिम्बसार को दे। ” दौवारिक राजमुद्रा देख आश्चर्यचकित हो गया । उसने थोड़ा आदर -प्रदर्शन कर कहा - "कुछ सन्देश भी है भन्ते ! " " नहीं। ” कहकर राजदम्पती चैत्य में आकर एक शिलाखण्ड पर पड़ रहे । शिला पर गिरते ही देवी मल्लिका के प्राण निकल गए । उन्हें गतप्राण देख महाराज प्रसेनजित् कुछ होठों में ही बड़बड़ाए और वे भी धीरे- धीरे देवी मल्लिका के शरीर पर गिर गए । उसी रात उनकी भी मृत्यु हो गई । मुद्रिका पाकर श्रेणिक बिम्बसार अमात्य - वर्ग सहित कोसलपति की अभ्यर्थना को