था , परन्तु उसमें एक सांड़ के बराबर बल था । इसे दुर्गपति ने बहुत बाल्यावस्था में तीर्थयात्रा करते हुए अनार्य देश से मोल खरीदा था । मालिक की भांति दुर्गपति के दोनों सेवक भी विश्व के सम्बन्धों से पृथक् थे। ये दोनों भी कभी किसी नगर में नहीं गए । हां , दास और कभी- कभी दासी भी उस निकटवर्ती गांव में अवश्य चले जाते थे। इन चार मूल प्राणियों के सिवा रात को पुल भंग होने के बाद केवल आठ सिपाही इस दुर्ग में रह जाते थे। वे केवल दुर्ग- द्वार पर पहरा देते थे। दुर्ग के मुख्य पश्चिम द्वार के निकट , जिधर गहन कान्तार पड़ता था , एक दृढ़ प्रकोष्ठ पत्थरों का बना था । यह वास्तव में बन्दीगृह था । बन्दीगृह में कोई प्रकट प्रवेश - द्वार न था । केवल छत के पास एक आयत - भर का छिद्र था । इस छिद्र के द्वारा ही बन्दी को वायु , अन्न , जल और प्रकाश प्राप्त होता था । गुप्त द्वार जल के भीतर था । द्वार के ऊपर एक अलिन्द था , जिसमें लौह- फलक जड़े थे। उस अलिन्द में , जब वहां कोई बन्दी रहता था , तो आठ प्रहरी खास तौर पर रात -दिन पहरा देने को नियत रहते थे। खाई के उस पार इस बन्दीघर के ठीक छिद्र के सामने एक छोटी - सी पक्की दमंज़िली अट्टालिका थी । यह अट्टालिका प्रायः सदा बन्द रहती थी । कभी -कभी इसमें रहस्यपूर्ण रीति से कोई राजपुरुष दो - चार दिन को आ ठहरते थे। वहां से दुर्ग के उस ओर वाली बस्ती को केवल एक छोटी- सी पगडंडी चली गई थी । बस्ती में सिपाहियों के घरों के सिवा कुछ घर कृषकों के भी थे। उन्होंने आसपास की थोड़ी - सी भूमि साफ करके अपने खेत बना लिए थे। कुल बस्ती में केवल एक दुकान मोदी की थी तथा एक पानागार था । रात्रि को बहुत देर तक उसी पानागार में चहल - पहल रहती थी । बस्ती के रहने वाले प्रायः वहां बैठकर पान करते हुए गप्पें लड़ाया करते थे । इस समय दुर्ग में एक बन्दी था । इससे बन्दीगृह के बाहरी अलिन्द में आठ सशस्त्र सैनिकों का पहरा बैठा था और खाई के उस पार जो घर था उसमें भी मनुष्यों के रहने का आभास मिल रहा था । परन्तु नियमित रूप से जैसी व्यवस्था चली आ रही थी , दुर्ग में वैसी ही चल रही थी । दुर्गपति साधारण नित्यनियम से रह रहे थे। केवल बन्दीगृह के प्रान्त को छोड़कर और कहीं कुछ नवीनता नहीं प्रकट हो रही थी ।
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