पृष्ठ:वैशाली की नगरवधू.djvu/३१

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यही सब बातें अम्बपाली सोच रही थी। शुभ्र चन्द्र की ज्योत्स्ना में, शुभ्र वसनभूषिता, शुभ्रवर्णा, शुभानना अम्बपाली उस स्वच्छ-शुभ्र शिलाखण्ड पर बैठ मूर्तिमती ज्योत्स्ना मालूम हो रही थी। उसका अन्तर्द्वन्द्व अथाह था और वह बाह्य जगत् को भूल गई थी। इसी से जब मदलेखा ने आकर नम्रतापूर्वक कहा––"देवी की जय हो! गणपति आए हैं और द्वार पर खड़े अनुमति की प्रतीक्षा कर रहे हैं।"––तब वह चौंक उठी। उसने भृकुटि चढ़ाकर कहा––उन्हें यहां ले आ।"

वह प्रस्तर-पीठ पर सावधान होकर बैठ गई। गणनायक सुमन्त ने आकर कहा––"देवी अम्बपाली प्रसन्न हों। मैं वज्जीसंघ का सन्देश लाया हूं।"

"तो आपके वधिक कहां हैं? उनसे कहिए कि मैं तैयार हूं। वैशाली जनपद के ये हिंस्र नरपशु किस प्रकार हनन किया चाहते हैं?"

"वे तुम्हारा शरीर चाहते हैं।"

"वह तो उन्हें अनायास ही मिल जाएगा।"

"जीवित शरीर चाहते हैं, सस्मित शरीर। देवी अम्बपाली, वज्जीसंघ ने तुम्हारी शर्तें स्वीकार कर ली हैं। केवल अन्तिम शर्त..."

"अन्तिम शर्त क्या?" अम्बपाली ने उत्तेजना से कहा––"क्या वे उसे अस्वीकार करेंगे? मैं किसी भी प्रकार अपनी शर्तों की अवहेलना सहन न करूंगी।"

वृद्ध गणपति ने कहा––"देवी अम्बपाली, तुम रोष और असन्तोष को त्याग दो। तुम्हें सप्तभूमि प्रासाद समस्त वैभव और साधन सहित और नौ कोटि स्वर्णभार सहित मिलेगा। तुम्हारा आवास दुर्ग की भांति सुरक्षित रहेगा। किन्तु यदि तुम्हारे आवास के आगन्तुकों की जांच की कभी आवश्यकता हुई तो उसकी एक सप्ताह पूर्व तुम्हें सूचना दे दी जाएगी। अब तुम अदृष्ट की नियति को स्वीकार करो, देवी अम्बपाली! महान व्यक्तित्व की सदैव सार्वजनिक स्वार्थों पर बलि होती है। आज वैशाली के जनपद को अपने ही लोहू में डूबने से बचा लो।"

अम्बपाली ने उत्तेजित हो कहा––क्यों, किसलिए? जहां स्त्री की स्वाधीनता पर हस्तक्षेप हो, उस जनपद को जितनी जल्द लोहू में डुबोया जाए, उतना ही अच्छा है। मैं आपके वधिकों का स्वागत करूंगी, पर अपनी शर्तों में तनिक भी हेर-फेर स्वीकार न करूंगी। भले ही वैशाली का यह स्त्रैण जनपद कल की जगह आज ही लोहू में डूब जाए।"

"परन्तु यह अत्यन्त भयानक है, देवी अम्बपाली! तुम ऐसा कदापि नहीं करने पाओगी। तुम्हें वैशाली के जनपद को बचाना होगा। अष्टकुल के स्थापित गणतन्त्र की रक्षा करनी होगी। यह जनपद तुम्हारा है, तुम उसकी एक अंग हो। कहो, तुम अपना प्राण देकर उसे बचाओगी?"

"मैं, मैं अभी प्राण देने को तैयार हूं। आप वधिकों को भेजिए तो।"

गणपति ने आर्द्रकण्ठ से कहा––"तुम चिरंजीविनी होओ, देवी अम्बपाली! तुम अमर होओ। जनपद की रक्षा का भार स्त्री-पुरुष दोनों ही पर है। पुरुष सदैव इस पर अपनी बलि देते आए हैं। स्त्रियों को भी बलि देनी पड़ती है। तुम्हारा यह दिव्य रूप, यह अनिन्द्य सौन्दर्य, यह विकसित यौवन, यह तेज, यह दर्प, यह व्यक्तित्व स्त्रीत्व के नाम पर, किसी एक नगण्य व्यक्ति के दासत्व में क्यों सौंप दिया जाए? तुम्हारी जैसी असाधारण स्त्री क्यों एक पुरुष की