पृष्ठ:वैशाली की नगरवधू.djvu/३२५

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बैठकर राजनन्दिनी के दोनों हाथ अपने हाथों में लेकर अवरुद्ध कण्ठ से फिर कहा - “ शील राजकुमारी ने बड़ी- बड़ी भारी पलकें उठाकर सोम को देखा और असंयत भाव से कहा - “ सोम , प्रियदर्शन , तुम आहत हो , बैठ जाओ, बैठ जाओ ! " " तो तुमने मुझे क्षमा कर दिया शील ? यह मैं जानता था । मैं जानता था , तुम मुझे अवश्य क्षमा कर दोगी । परन्तु शील प्रिये , अपने को मैं कभी नहीं क्षमा करूंगा, कभी नहीं। " __ “ वह सब तुम्हें करना पड़ा, सोमभद्र ! ” “किन्तु प्रिये , मैंने जिस दिन प्रथम तुम्हें देखा था , अपना हृदय तुम्हें दे दिया था । मैंने प्राणों से भी अधिक तुम्हें प्यार किया। तुम मेरे क्षुद्राशय को नहीं जानतीं । मेरा निश्चय था कि विद्डभ राजकुमार को बन्दीगृह में मरने दिया जाए , कोसल - राजवंश का अन्त हो और अज्ञात -कुलशील सोम कोसलपति बनकर तुम्हें कोसल - पट्टराजमहिषी पद पर अभिषिक्त करे। सब कुछ अनुकूल था , एक भी बाधा नहीं थी । " “मैं जानती हूं, प्रियदर्शन ! पर तुमने वही किया , जो तुम्हें करना योग्य था । किन्तु अब ? " “ अब मुझे जाना होगा प्रिये ! ” " तो मैं भी तुम्हारे साथ हं , प्रिय ! ” । " नहीं शील, ऐसा नहीं हो सकता । मुझे जाना होगा और तुम्हें रहना होगा । मैं कोसल का अधिपति न बन सका , किन्तु तुम कोसल की पट्टराजमहिषी रहोगी, यह ध्रुव है । ” “मैं , सोम प्रियदर्शन , तुम्हारी चिरकिंकरी पत्नी होने में गर्व अनुभव करूंगी। " " ओह, नहीं, एक अज्ञात - कुलशील नगण्य वंचक की पत्नी महामहिमामयी चम्पा राजनन्दिनी नहीं हो सकतीं। " “ किन्तु सोमभद्र, मैं तुम्हारी चिरदासी शील हूं। मैं तुम्हें आप्यायित करूंगी अपनी सेवा से , सान्निध्य से , निष्ठा से और तुम अपना प्रेम - प्रसाद देकर मुझे आपूर्यमाण करना। " । " मेरे प्रत्येक रोम- कूप का सम्पूर्ण प्रेम , मेरे शरीर का प्रत्येक रक्तबिंदु, मेरे जीवन का प्रत्येक श्वास आसमाप्ति तुम्हारा ही है शील । पर यह नहीं हो सकता , तुम्हें कोसल की पट्टराजमहिषी बनना होगा ! " ___ “किन्तु मैं तुम्हें प्यार करती हूं सोम , केवल तुम्हें । " ___ “ और मैं भी तुम्हें , प्राणाधिक शील ! किन्तु पृथ्वी पर प्यार ही सब -कुछ नहीं है। सोचो तो , यदि प्यार ही की बात होती तो मैं विदुडभ का क्यों उद्धार करता ? क्यों अपने हाथों उसके सिर पर कोसल का राजमुकुट रखकर कोसलेश्वर कहकर अभिवादन करता ? प्रिये, चारुशीले , निष्ठा और कर्तव्य मानव -जीवन का चरम उत्कर्ष है। मैंने उसी को निबाहा । अब तुम मुझे सहारा दो । " सोम ने कुमारी के चरण - तल में बैठकर उसके दोनों हाथ अपने नेत्रों से लगा लिए । कुमारी कटे वृक्ष की भांति उनके ऊपर गिर गईं। उनकी आंखों से अश्रुधारा बह चली । बहुत देर तक दोनों निर्वाक् -निश्चल रहे । फिर कुमारी ने उठकर , धीरे - से , जैसे मरता हुआ मनुष्य बोलता है, कहा - “मैं जानती थी , तुम यही करोगे। सोम , प्रियदर्शन , किन्तु मेरे प्रत्येक रोम