पृष्ठ:वैशाली की नगरवधू.djvu/३४२

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बजाई थी । " अम्बपाली ने प्रच्छन्न व्यंग्य करते हुए कहा। “निश्चय ! " तरुण के नेत्रों से एक ज्योति निकलने लगी । तरुण के इस संक्षिप्त उत्तर से अम्बपाली विजड़ित हो गईं। उन्हें महाराज उदयन की वह अद्भुत भेंट याद आ गई। उन्होंने धीमे स्वर से कहा " क्या कहा ? तुम इस वीणा को बजाओगे ? “निश्चय ! ” तरुण ने कुछ कठोर स्वर से कहा । “ क्या तुम इसे तीन ग्रामों में एक ही साथ बजा सकते हो मित्र ? ” “निश्चय ! " तरुण उत्तेजना के मारे खड़ा हो गया । अम्बपाली ने कहा - "किसने तुम्हें यह सामर्थ्य दी , सुनूं तो ! “ स्वयं कौशाम्बीपति महाराज उदयन ने । पृथ्वी पर दो व्यक्ति यह वीणा बजा सकते हैं । " “ एक महाराज उदयन, ” अम्बपाली ने तीखे स्वर में पूछा - “ और दूसरे ? " " दूसरा मैं ! ” तरुण ने दर्प से कहा । अम्बपाली क्षण - भर जड़ रहकर बोलीं “ अस्तु , परन्तु तुम मुझसे क्या सहायता चाहते हो मित्र ? ” “ अति साधारण , तुम देवी तक मेरा यह अनुरोध पहुंचा दो कि वे यहां मेरी कुटी में आकर एक बार मेरे सम्मुख वही नृत्य करें जो उन्होंने अमोघ गान्धर्वी मंजुघोषा वीणा पर महाराज उदयन के सम्मुख किया था । " ___ " इस कुटी में आकर ! तुम पागल तो नहीं हो गए मित्र! तुम मेरे प्राणत्राता अवश्य हो , पर मैं तुम्हारा अनुरोध नहीं ले जा सकता। देवी अम्बपाली तुम्हारी कुटी में आएंगी भला ! " “ और उपाय नहीं हैं मित्र , देवी के उस कुत्सित सर्वजन-सुलभ आवास में तो मैं नहीं जाऊंगा ! " . अम्बपाली के हृदय के एक कोने में आघात हुआ , परन्तु उन्होंने उस अद्भुत तरुण से कुटिल हास्य भौंहों में छिपाकर कहा " तुम्हारा यह कार्य मैं कर दूंगा तो मुझे क्या मिलेगा ? " “ जो मांगो मित्र, इस वीणा को छोड़कर । " । “ वीणा नहीं, केवल वह नृत्य मुझे देख लेने देना ? " “ यह न हो सकेगा, मानव- चक्षु उसे देख नहीं सकेंगे। महाराज का यही आदेश है। " " तब मैं तुम्हारी सहायता नहीं कर सकता। " तरुण ने खीझकर कहा " जाने दो मित्र, मैं अपना कोई दूसरा मार्ग ढूंढ़ लूंगा । किन्तु अरे , अभी मुझे भोजन व्यवस्था भी करनी है ; तुम वस्त्र बदलो मित्र , मैं घड़ी भर में आता हूं। " तरुण ने बर्छा उठाया और तेज़ी से बाहर चला गया । अम्बपाली ने बाधा देकर कहा " इस अन्धकार में अब वन में कहां भटकोगे मित्र ? " " वह कुछ नहीं, यह मेरा नित्य व्यापार है। वहां उस कन्दरा में मेरा आखेट है, मैं