अम्बपाली बाहर निकल आई।
विविध वाद्य बजने लगे। दासियों ने उसे नए अन्तर्वासक और उत्तरीय पहनाए। केशों को झाड़कर हवा में फैला दिया। भांति-भांति के गन्ध-माल्य पहनाए गए। तरुणों ने अम्बपाली पर गन्ध-पुष्प और अंगराग की वर्षा कर दी। फिर अम्बपाली को पारस्य देश के सुन्दर बिछावन पर बैठाया गया।
अब गणभोज प्रारम्भ हुआ। गण के प्रत्येक सदस्य ने अम्बपाली की पत्तल से कुछ खाया। नीलगाय, सूअर, पक्षियों के मांस निध्रुम आग पर भून-भूनकर अम्बपाली के सम्मुख ढेर किए जा रहे थे। मैरेय के घट भर-भर कर उसके चारों ओर एकत्र हो रहे थे। अम्बपाली की दासियां उनमें पात्र भर-भर कर तरुणों को और गणसदस्यों को दे रही थीं। वे लोग हंस हंसकर अम्बपाली की कल्याण-कामना कर-करके स्वच्छन्दता से खा-पी रहे थे।
अन्त में अम्बपाली रथ में सवार होकर सप्तभूमि प्रासाद की ओर चली। साथ ही सम्पूर्ण गणसदस्य, सामन्तपुत्र और सेट्ठिपुत्र एवं नागरिक थे। सप्तभूमि प्रासाद की सिंहपौर पर शोभायात्रा के पहुंचते ही प्रासाद की प्राचीर पर से सैकड़ों तूर्य बजाए गए। प्रासादपाल ने उपस्थित होकर अश्व और खड्ग निवेदन किया। अम्बपाली ने रथ त्याग खड्ग छुआ और अश्व पर सवार होकर प्रासाद में चली गई। वैशाली का जनपद विविध वार्तालाप करता अपने-अपने घर लौटा।