बहुत ब्राह्मण अपना स्वच्छ जनेऊ हाथ में लेकर उसे मारने दौड़े – “ भाग रे चाण्डाल, भाग रे , भाकुटिक , ब्राह्मणों में घुस आया पतित ! ” ___ परन्तु हरिकेशी भागा नहीं । विचलित भी नहीं हुआ । उसने कहा - “ मैं संयमी हूं , दूसरे लोग अपने लिए जो अन्न रांधते हैं , उसी में से बचा हुआ थोड़ा अन्न मैं भिक्षाकाल में मांग लेता हूं । आप लोग यहां याचकों को बहुत स्वर्ण, वस्त्र , अन्न दे रहे हैं । मुझे स्वर्ण नहीं चाहिए , उससे मेरा कोई काम नहीं सरता । वस्त्र मैं श्मशान से उठा लाता हूं, मैं तो दिगम्बर आजीवक हूं, मुझे अन्न चाहिए । मुझे अन्न दो । आपके पास बहुत अन्न हैं , आप लोग खा - पी रहे हैं , मुझे भी दो , थोड़ा ही दो । मैं तपस्वी हूं , ऐसा समझकर जो बच गया हो वही दो । एक ब्राह्मण ने क्रुद्ध होकर कहा - “ अरे मूर्ख, यहां ब्राह्मणों के लिए अन्न तैयार होता है, चाण्डालों के लिए नहीं, भाग यहां से । " ___ “ अतिवृष्टि हो या अल्पवृष्टि, तो भी कृषक ऊंची-नीची सभी भूमि में बीज बोता है और आशा करता है खेत में अन्न - पाक होगा । उसी भांति तुम भी मुझे दान दो । मुझ जैसे तुच्छ चाण्डाल मुनि को अन्न - दान करने से तुम्हें पुण्य - लाभ होगा। " इस पर बहुत - से ब्राह्मण एक बार ही आपे से बाहर होकर लगुड - हस्त हो उसे मारने को दौड़े । उन्होंने कहा - “ अरे दुष्ट चाण्डाल , तू अपने को मुनि कहता है! नहीं जानता , पृथ्वी पर केवल हम ब्राह्मण ही दान पाने के प्रकृत अधिकारी हैं , ब्राह्मण ही को दिया दान पुण्यफल देता है। " ____ “क्रोध , मान, हिंसा, असत्य, चोरी और परिग्रह से युक्त जनों को जाति तथा विद्या से रहित ही जानना चाहिए। ऐसे जन दान के पात्र नहीं हो सकते । वेद पढ़कर भी उसके अभिप्राय को न जाननेवाला पुरुष कोरा गाल बजाने वाला कहाता है, परन्तु ऊंच-नीच में समभाव रखनेवाला मुनि दान के योग्य सत्यपात्र है । " __ “ अरे काणे चाण्डाल , तू हम ब्राह्मणों के सम्मुख वेदपाठी ब्राह्मणों की निन्दा करता है ! याद रख, हमारा बचा हुआ यह अन्न सड़ भले ही जाए और फेंकना पड़े , पर तुम निगंठ चाण्डाल को एक कण भी नहीं मिल सकता , तू भाग । ” । ___ “ सत्यवृत्ति एवं समाधि - सम्पन्न मन - वचन - कर्म से असत् -प्रवृत्तियों से मुक्त , जितेन्द्रिय ब्रह्मचारी को यदि तुम अन्न नहीं दे सकते , तो फिर तुम पुण्य भी नहीं पा सकते हो । ” इतनी देर बाद श्रोत्रिय ने चिल्लाकर कहा " अरे कोई है, इसे डंडे मारकर भगाओ यहां से, मारो धक्के! गर्दन नापो, गर्दन ! " इस पर कुछ बटुक दण्ड ले - लेकर हरिकेशी को मारने लगे । हरिकेशी हंसता हुआ निष्क्रिय पिटता रहा । इसी समय एक परम रूपवती षोडशी बाला, बहुमूल्य मणि - सुवर्ण-रत्न धारण किए विविध बहमूल्य वस्त्रों से सुसज्जित दौड़ी आई और हरिकेशी के आगे दोनों हाथ फैलाकर खड़ी हो गई। उसे इस प्रकार खड़ी देख हरिकेशी को मारनेवाला ब्राह्मण बटुक रुक गया । युवती ने कहा - “ अलम्- अलम् ! मैं पूर्व विदेह की पुण्डरीकिणी नगरी के राजा महापद्म की पुत्री जयन्ती हूं ; मेरे पिता ने मुझे इस महात्मा को प्रदान कर दिया था , परन्तु इस इन्द्रिय -विजयी ने स्वीकार नहीं किया । यह महातपस्वी , उग्र ब्रह्मचारी, घोर व्रत और
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