115 . पारग्रामिक काप्यक गान्धार ने बहुत - सी बहुमूल्य उपानय - सामग्री ले , दास , सैनिक और पथप्रदर्शकों के साथ ठाठ और आडम्बर के साथ राजगृह को प्रस्थान किया । सम्राट से महामात्य वर्षकार का विग्रह शमन कराने के लिए यह आयोजन किया गया है, यह सुनकर ब्राह्मण वर्षकार ने एक शब्द भी हां या ना नहीं कहा। हर्ष-विषाद भी कुछ उसने नहीं प्रकट किया । परन्तु उसी दिन उसने मध्यरात्रि में कुछ आदेश लेख लिखे और उन्हें ब्राह्मण सोमिल को देकर कहा - “ यह लेख नन्दन साहु के पास अभी पहुंचना चाहिए । नन्दन साहु ने वह लेख पाकर उसी रात्रि को एक दण्ड रात्रि रहते अपने घर से प्रस्थान किया और वैशाली उपनगर में आकर उपालि कुम्भकार के घर आया । उपालि कुम्भकार श्रावस्ती से आकर अभी कुछ दिन हुए यहां बसा था । नन्दन साहू ने वह लेख उसे दिया और कुछ भाण्ड उपालि से क्रय कर उनका मूल्य चुका, सूर्योदय से पूर्व ही घर लौट आया । परन्तु वैशाली के तीन द्वारों से तीन पुरुष सूर्योदय के साथ ही तीन दिशाओं को निकले । तीनों पदातिक थे। एक ने उत्तर - पूर्व में कुण्डपुर जाकर एक हर्म्य में मगध सेनापति उदायि को एक लेख दिया । दूसरे ने पश्चिम में वाणिज्य - ग्राम जाकर मागध सन्धिवैग्राहिक ध्रुववर्ष को एक लेख दिया । तीसरे ने कोल्लोग - सन्निवेश में स्थित मागध सेनानायक सुमित्र को तीसरा लेख दिया । वे अपना अपना कार्य पूर्ण करके अपने - अपने स्थान पर फिर वैशाली में लौट आए । परन्तु इन तीनों ही व्यक्तियों के पीछे छाया की भांति तीन और व्यक्ति भी उपर्युक्त स्थानों पर उनके पीछे पीछे जा पहुंचे थे। वे तीनों वैशाली नहीं गए। पूर्वोक्त व्यक्तियों के वैशाली लौट जाने पर वे लम्बा चक्कर काटकर टेढ़े-तिरछे मार्गों में घूमते -फिरते हुए द्युतिपलाश चैत्य में एकत्रित हुए। वहां एक ग्रामीण तरुण वृक्ष की छाया में बैठा सुस्ता रहा था । तीनों ने उसके निकट पहुंचकर अभिवादन करके अपने - अपने सन्देश दिए। ग्रामीण तरुण ने उनमें से प्रत्येक को कुछ मौखिक सन्देश देकर भिन्न - भिन्न दिशाओं में चलता किया । फिर वह कुछ देर बैठा कुछ सोचता रहा। उसने वस्त्र से कुछ लेख-मानचित्र निकालकर उन्हें ध्यान से भलीभांति देखा , फिर उन्हें नष्ट कर दिया ! इसके बाद वह मन - ही - मन बड़बड़ाकर हंसा और उसके मुंह से निकला - " बस , खड्ग और मैं ! ” एक बार उसने अपने चारों ओर देखा, फिर उठकर राजगृह के मार्ग पर चल दिया । इस समय दो पहर दिन चढ़ गया था और वह मार्ग विजन वन में होकर था । दूर - दूर तक बस्ती का नाम न था - कहीं सघन वन और कहीं एकाध ग्राम । परन्तु वह सूर्यास्त तक बिना कहीं रुके चलता ही चला गया । उसने यथेष्ट मार्ग पार किया । अन्ततः वह भिण्डि - ग्राम की सीमा में आया। यहां एक चैत्य में उसने विश्राम करने का विचार किया । वह बहुत थक गया था , साथ ही भूख-प्यास से व्याकुल भी था । चैत्य के निकट ही एक गृहस्थ का घर था । वहां जाकर उसने कहा - “ गृहपति , क्या मैं तेरे यहां आज ठहर सकता हूं ? मैं पारग्रामिक हूं, मुझे भोजन भी चाहिए । मेरे पास पाथेय नहीं है। परन्तु तुझे मैं
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