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पृष्ठ:वैशाली की नगरवधू.djvu/४५

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8. कुलपुत्र यश

कुलपुत्र यश वाराणसी के नगरसेट्ठि का एकमात्र पुत्र था। वह सुन्दर युवक भावुक और कोमल-हृदय था। उसके तीन प्रासाद थे : एक हेमन्त का, दूसरा ग्रीष्म का, तीसरा वर्षा का। जिस समय की बात हम कह रहे हैं वह वर्षाकालिक प्रासाद में अपुरुषों से सेवित सुख लूट रहा था। श्रमण गौतम मृगदाव में आए हैं, यह उसने सुना। यह श्रमण गौतम राज सम्पदा और शाक्यों की प्रख्यात वंश-परम्परा त्याग, सुन्दरी पत्नी, नवजात पुत्र, सम्पन्न वैभव, वाहन और अनुचरों का आश्रय त्याग वाराणसी में पांव-पैदल, हाथ में भिक्षापात्र लिए, सद्गृहस्थों के द्वार पर नीची दृष्टि किए मौन भाव से भिक्षा मांगता फिरता है। उसने काशी के विश्रुत विद्वान् पञ्चजनों को उपसम्पदा दी है। यह गौतम किस सम्पदा से आप्यायित है?—यह श्रमण किस अमृत से तृप्त है? यह श्रमण किस निधि से ओतप्रोत है? उस दिन यश बड़ी देर तक बैठा यही सोचता रहा।

अंधेरी रात थी। रिमझिम वर्षा हो रही थी। ठण्डी हवा बह रही थी। यश का वर्षा-प्रासाद गन्धदीपों के मन्द आलोक से आलोकित और गन्धद्रव्यों से सुरभित हो रहा था। रात गहन होती गई और यश और भी गहन मुद्रा से उसी श्रमण गौतम के विषय में सोचने लगा। प्रासाद में मृदुल वाद्यों की झंकार पूरित थी। नुपूर और किंकिणि की ठमकियां आ रही थीं। दासियों ने आकर निवेदन किया––"यह कुलपुत्र के शयन का समय है, यह अवमर्दक, पीठमर्दिका उपस्थित है, ये चरणदासियां हैं। कुलपुत्र विश्राम करें, शय्यारूढ़ हों, हम चरण सेवा करें। आज्ञा हो, नृत्यवाद्य हो। वाराणसी की श्रेष्ठ सुन्दरी वेश्या कादम्बरी नृत्य के लिए प्रतीक्षा कर रही है।"

यश ने थकित भाव से कहा—"अभी ठहरो शुभे, मुझे कुछ सोचने दो। यही तो मैं नित्य देखता-भोगता रहा हूं। सुन्दरियों के नृत्य, रूपसी का रूप, कोकिल-कण्ठी का कलगान, तन्त्री की स्वर-लहरी, नहीं-नहीं, अब मुझे इनसे तृप्ति नहीं होती। कौन है, वह श्रमण? वह किस सम्पदा से सम्पन्न है? यही तो सब कुछ इससे भी अधिक-बहुत अधिक वह त्याग चुका, इनसे विरत हो चुका। फिर भी वह चिन्तारहित है, उद्वेगरहित है, विकाररहित है। वह पांव-प्यादा चलकर प्रत्येक गृहस्थ से भिक्षा लेता है और चला जाता है, पृथ्वी में दृष्टि दिए, शांत, तृप्त, मौन!..."

"नहीं, नहीं, अभी नहीं। नृत्य रहने दो, पीठमर्दिका और अवमर्दक से कह दो, वे शयन करें और तुम भी शुभे, शयन करो। अभी मुझे कुछ सोचने दो, कुछ समझने दो। वह श्रमण, वह शाक्यपुत्र...!"

दासियां चली गईं। रात गंभीर होती गई। नुपूर-ध्वनि बन्द हुई। प्रासाद में शान्ति छा गई। सुगन्धित दीप जल रहे थे। स्निग्ध प्रकाश फैल रहा था। आकाश में काले-अंधेरे बादल घूम रहे थे। नन्हीं-नन्हीं फुहार गिर रही थी। तभी यश की विचारधारा टूटी। वह