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पृष्ठ:वैशाली की नगरवधू.djvu/४७९

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में खड़े चारों ओर चौकन्ने हो देख रहे थे। जल में शब्द सुनाई दिया - छप - छप । घाट से कुछ नीचे की धार बहुत उथली थी । उसी ओर से वह शब्द आ रहा था । शब्द निकट आने लगा । कोई काली छाया बराबर जल में आगे बढ़ रही थी । प्रियवर्मन् ने संकेत किया , बाणों की एक प्रबल बाढ़ धनुषों से निकली । गंगा की मध्य धार में तैरती नौकाओं में से चीत्कार सुनाई दिया । पतवार के शब्द पीछे की ओर लौटते सुनाई देने लगे । काप्यक ने प्रियवर्मन् को एक सन्देश भेजा । क्षण - भर में फिर सन्नाटा छा गया । काप्यक सोचने लगे कि शत्रु क्या अब इस रात चेष्टा न करेगा ? परन्तु इसी समय उन्हें शुक का शब्द सुनाई दिया । काप्यक ने प्रियवर्मन् के पास सन्देश भेजा “ शत्रु अधिक तैयारी से आ रहा है, सावधान रहो ! " गंगा की धार में अनगिनत नावें तैरती दिखाई दीं । चप्पुओं के चलने के शब्द स्पष्ट सुन पड़ने लगे । सैकड़ों नावें तीर की भांति धंसी चली आ रही थीं । प्रियवर्मन् की सेना अन्धाधुन्ध बाण -वर्षा कर रही थी , परन्तु शत्रु वेग से बढ़ा ही आ रहा था । उसकी नावें इस किनारे पर आ लगीं । कपिल ने तट पर एकत्रित पत्तों और लकड़ियों में आग लगा दी । उसके प्रकाश में सबने देखा - शत्रु के अनगिनत भट इधर तट पर आ रहे हैं और भी चले आ रहे हैं । प्रियवर्मन् के धानुष्य बाण -वर्षा कर रहे थे। प्रकाश की सहायता से उनके बाणों में विद्ध हो होकर शत्रु जल में गिर रहे थे। शत्रु की जो सेना थल पर उतरने लगी, पुष्पमित्र की टुकड़ी उस पर टूट पड़ी । तट पर गहरी मार - काट मच गई । इसी समय अकस्मात् न जाने कहां से सैकड़ों रणतरियां गंगा में इधर - उधर फैल गईं । उसमें जड़ी लौह श्रृंगों से टकराकर मागधी नावों में छिद्र हो गए । वे डूबने लगीं। शूलों और खड्गों से युद्ध तुमुल हो गया । दोनों ओर के वीर चीत्कार करते हुए युद्ध करने लगे । काप्यक ने देखा - एक सुदृढ़ नौका पर एक व्यक्ति खड़ा आदेश दे रहा था । काप्यक ने साहस कर अपनी तरणी उस ओर बढ़ाई । वह तट के समीप ही था । काप्यक ने देखा वह कवच से सुसज्जित है । बाण और खड्ग की चोट उस पर काम न देगी । काप्यक धीरे - से अपनी नाव से जल में कूद पड़े और छिपकली की भांति उछलकर शत्रु की नाव पर जा कवचधारी के सिर पर गदा का एक भरपूर प्रहार किया , चोट से घबराकर वह जल में आ घिरा । काप्यक भी गदा फेंक, खड्ग ले , जल में कूद पड़े । इसी समय मगध की अनगिनत नावों ने दोनों को घेर लिया । काप्यक उस मूर्च्छित पुरुष को बायें हाथ में उठाए दाहिने हाथ से दोनों ओर खड्ग चला रहे थे। परन्तु उसका कवच सहित भारी बोझा उनसे संभल नहीं रहा था । इधर उन पर चारों ओर से प्रहार हो रहे थे। इसी समय एक बर्छा उनकी जंघा में घुस गया । कवचधारी व्यक्ति उनके हाथ से छूट गया । उन्हें मूर्छा ने घेर लिया । पर मूर्च्छित होते - होते उन्होंने अपने निकट एक सुपरिचित मुख देखा, वह शुक था । उसका भारी दाव रक्त से भरा था और वह प्रबल प्रयास से मूर्च्छित काप्यक और कवचधारी को तट की ओर ला रहा था । इसी समय दो व्यक्तियों ने पानी से सिर निकाला । दोनों नौकाओं के तल में चिपक रहे थे। सिर निकालकर उन्होंने अघाकर सांस ली । फिर वे टूटी हुई नौकाओं की आड़ लेते हुए तट तक आए और जल - ही - जल में कगार के सहारे - सहारे पानी के बहाव के विपरीत ऊपर को चलते गए। दोनों के हाथ में नग्न खड्ग थे। अब वे वैशाली के तीर्थ पर आ पहंचे,