पृष्ठ:वैशाली की नगरवधू.djvu/५१०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

156. पिता - पुत्र उस अर्ध-निशा में सेनापति को एकाकी बन्दीगृह के द्वार पर आया देख प्रहरी घबरा गए। सोम ने पूछा - " क्या बन्दी सो रहा है ? " “ नहीं जाग रहा है । " "ठीक है । अब तुम्हारी आवश्यकता नहीं है। द्वार खोल दो । " प्रहरी ने द्वार खोल दिया । सोम ने भीतर जाकर देखा - सम्राट् धीर- गति से उस क्षुद्र कक्ष में टहल रहे थे । सोम को देखकर वे क्षण- भर को रुक गए । फिर बोले “ आ आयुष्मान्, क्या वध करने आया है ? वध कर , मैं प्रस्तुत हूं । परन्तु एक वचन दे, खड्ग छूकर। यदि अम्बपाली को पुत्र -लाभ हो , तो वही मगध सम्राट् होगा। मैंने देवी को यह वचन उसके शुल्क में दिया था , वह वचन सम्राट का वचन था । " सोम ने भरोए कण्ठ से कहा - “ वचन देता हूं। " " खड्ग छूकर ? ” “ खड्ग छूकर । " “ आश्वस्त हुआ, परन्तु आयुष्मान् , तू युवा है, सशक्त है, खड्ग चलाने में सिद्धहस्त है। " सोम ने उत्तर नहीं दिया । चुपचाप खड़े रहे । सम्राट् कहते गए – “ मैं समझता हूं , एक ही हाथ से मेरा शिरच्छेद हो जाएगा । अधिक कष्ट नहीं होगा , समझता है न आयुष्मन् ? अब मैं कायर हो गया हूं, कष्ट नहीं सह सकता। यह अवस्था का दोष है, भद्र पहले मैं ऐसा नहीं था । अब तू वध कर । " । सम्राट् स्थिर मुद्रा में भूमि पर बैठ गए । सोम के मुंह से एक शब्द नहीं निकला - वह धीरे- धीरे सम्राट के चरणों में भूमि पर लोट गए । उन्होंने अवरुद्ध कण्ठ से कहा "पिता , क्षमा कीजिए! " “ यह मैंने क्या सुना है आयुष्मान्? " किन्तु सोम ने और एक शब्द भी नहीं कहा। वे उसी भांति भूमि पर पड़े रहे। सम्राट ने उठाकर और स्वयं उठकर सोम को छाती से लगाकर कहा “ क्या कहा, फिर कह भद्र! अरे इस नीरस, निर्मम , शापग्रस्त सम्राट् के जीवन को एक क्षण- भर के लिए तो आप्यायित कर , फिर कह भद्र, वही शब्द ! " सोम ने सम्राट के अंक में बालक की भांति सिर देकर कहा "पिता! "