पृष्ठ:वैशाली की नगरवधू.djvu/५१६

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नहीं किया । एक बार भी उसने आंख उठाकर किसी की ओर नहीं देखा । श्वेत मर्म की अचल देव - प्रतिमा की भांति शुभ्र शारदीय शोभा की मूर्त प्रतिकृति - सी वह निश्चल -निस्पन्द नीरव हाथी पर नीचे नयन किए बैठी थी । दासियों का पैदल झुण्ड उसके पीछे था । उनके पीछे अश्वारोही दल था और उसके बाद हाथियों पर गन्ध , माल्य , भोज्य , उपानय तथा पूज्य - पूजन की सामग्री थी । सबके पीछे विविध वाहन , कर्मचारी, नागर और जानपद । राजपथ , वीथी , हट्ट में अपार दर्शक उत्सुकता और कौतूहल से उसे देख रहे थे। बाड़ी के निकट जा उसने सवारी रोकने की आज्ञा दी । वह पांव -प्यादे वहां पहुंची, जहां एक द्रुम की शीतल छांह में , अर्हन्त श्रमण बुद्ध प्रसन्न मुद्रा में बैठे थे। पीछे सौ दासियों के हाथों में गन्ध -माल्य, उपानय और पूज्य - पूजन -साधन थे। तथागत अब अस्सी को पार कर गए थे। उनके गौर, उन्नत , कृश गात की शोभा गाम्भीर्य की चरम रेखाओं में विभूषित हो कोटि - कोटि जनपद को उनके चरणों में अवनत होने को आह्वान कर रही थी । उनके सब केश श्वेत हो गए थे। किन्तु वे एक बलिष्ठ महापुरुष दीख पड़ते थे। वे पद्मासन लगाए शान्त मुद्रा में वृक्ष की शीतल छाया में आसीन थे । सहस्रावधि भिक्षु , नागर उनके चारों ओर बैठे थे। मुंडित और काषायधारी भिक्षुकों की पंक्ति दूर तक बैठी उनके श्रीमुख से निकले प्रत्येक शब्द को हृदय - पटल पर लिख रही थी । आनन्द ने कहा "भगवन् , देवी अम्बपाली आई हैं । " __ तथागत ने किंचित् हास्य -मुद्रा से अम्बपाली को देखा । अम्बपाली ने सम्मुख आ , अभिवादन किया । गन्ध -माल्य निवेदन कर पूज्य - पूजन किया। फिर संयत भाव से एक ओर हटकर बैठकर उसने करबद्ध प्रार्थना की “ भन्ते भगवन्, भिक्षु-संघ सहित कल को मेरा भोजन स्वीकार करें ! " भगवन् ने मौन रह स्वीकार किया । तब देवी अम्बपाली भगवन् की स्वीकृति को जान आसन से उठ , भगवन् की प्रदक्षिणा कर , अभिवादन कर चल दी । इसी समय रथों , वाहनों , हाथियों , अश्वों का महानाद , बहुत मनुष्यों का कोलाहल सुन अर्हन्त बुद्ध ने कहा - “ आयुष्मान् आनन्द, यह कैसा कोलाहल है? ” . आनन्द ने कहा - " भगवन् , यह लिच्छवियों के अष्टराजकुल परिजनसहित भगवान् की शरण आ रहे हैं । " भगवान् ने कहा - “ आनन्द , तथागत अब अन्तिम बार वैशाली को देख रहा है। अब वैशाली वैसी नहीं रही। जब वे लिच्छवि सज -धजकर तथागत के निकट आते थे तब तथागत कहता था - "भिक्षुओ, तुमने देवताओं को अपनी नगरी से बाहर आते कभी नहीं देखा है, परन्तु इन वैशाली के लिच्छवियों को देखो , जो समृद्धि और ठाट -बाट में उन देवताओं के ही समान हैं । वे सोने के छत्र , स्वर्ण- मण्डित पालकी, स्वर्ण- जटित रथ और हाथियों सहित आबाल - वृद्ध सब विविध आभूषण पहने और विविध रंगों से रंजित वस्त्र धारण किए , सुन्दर वाहनों पर तथागत के पास आया करते थे। देख आनन्द, अतिसमृद्ध, सुरक्षित , सुभिक्ष, रमणीय , जनपूर्ण सम्पन्न गृह और हर्यों से अलंकृत , पुष्पवाटिकाओं और