पृष्ठ:वैशाली की नगरवधू.djvu/५७

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12. रहस्यमयी भेंट

एक पहर रात जा चुकी थी। राजगृह के प्रान्त सुनसान थे। उन्हीं सूनी और अंधेरी गलियों में एक तरुण अश्वारोही चुपचाप आगे बढ़ता जा रहा था। उसका सारा शरीर काले लबादे से ढका हुआ था, उसके शरीर और वस्त्रों पर गर्द छा रही थी। तरुण का मुख प्रभावशाली था, उसके गौरवपूर्ण मुख पर तेज़ काली आंखें चमक रही थीं, उसके लबादे के नीचे भारी-भारी अस्त्र अनायास ही दीख पड़ते थे। तरुण का अश्व भी सिंधु देश का एक असाधारण अश्व था। अश्व और आरोही दोनों थके हुए थे। परन्तु तरुण नगर के पूर्वी भाग की ओर बढ़ता जा रहा था, उधर ही उसे किसी अभीष्ट स्थान पर पहुंचना था, उसी की खोज में वह भटकता इधर-उधर देखता चुपचाप उन टेढ़ी-तिरछी गलियों को पारकर नगर के बिलकुल बाहरी भाग पर आ पहुंचा। यहां न तो राजपथ पर लालटेनें थीं, न कोई आदमी ही दीख पड़ता था, जिससे वह अपने अभीष्ट स्थान का पता पूछे। एक चौराहे पर वह इसी असमंजस में खड़ा होकर इधर-उधर देखने लगा।

उसने देखा, एक पुराने बड़े भारी मकान के आगे सीढ़ियों पर कोई सो रहा है, तरुण ने उसके निकट जाकर उसे पुकारकर जगाया। जागकर सामने सशस्त्र योद्धा को देखकर वह पुरुष डर गया। डरकर उसने कहा––"दुहाई , मेरे पास फूटी कौड़ी भी नहीं है, मैं अति दीन भिक्षुक हूं, आज भीख में कुछ भी नहीं मिला, इससे इस गृहस्थ के द्वार पर थककर पड़ रहा हूं, आप जानते हैं कि यह कोई अपराध नहीं है।"

युवक ने हंसकर कहा––"नहीं, यह कोई अपराध नहीं है, परन्तु तुम यदि आज भूखे ही यहां सो रहे हो तो यह वस्तु तुम्हारे काम आ सकती है, आगे बढ़ो और हाथ में लेकर देखो!"

बूढ़ा कांपता हुआ उठा। तरुण ने उसके हाथ पर जो वस्तु रख दी वह सोने का सिक्का था। उस अंधेरे में भी चमक रहा था। उसे देख और प्रसन्न होकर वृद्ध ने हाथ उठाकर कहा––"मैं ब्राह्मण हूं, आपको शत-सहस्र आशीर्वाद देता हूं, अपराध क्षमा हो, मैंने समझा, आप दस्यु हैं, दरिद्र को लूटा चाहते हैं, इसी से...।" दरिद्र ब्राह्मण की बात काटकर तरुण ने कहा––"तो ब्राह्मण, तुम यदि थोड़ा मेरा काम कर दो तो तुम्हें स्वर्ण का ऐसा ही एक और निष्क मिल सकता है, जो तुम्हारे बहुत काम आएगा।"

"साधु , साधु, मैं समझ गया। आप अवश्य कहीं के राजकुमार हैं। आपकी जय हो! कहिए, क्या करना होगा?"

तरुण ने कहा––"तनिक मेरे साथ चलो और आचार्य शाम्बव्य काश्यप का मठ किधर है, वह मुझे दिखा दो।"

आचार्य शाम्बव्य काश्यप का नाम सुनकर बूढ़े ब्राह्मण की घिग्घी बंध गई। उसने भय और सन्देह से तरुण को देखकर कांपते-कांपते कहा––"किन्तु इस समय..."