पृष्ठ:वैशाली की नगरवधू.djvu/६३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ प्रमाणित है।

13. बन्दी की मुक्ति

बहुत देर तक राजगृह का वह अद्भुत वैज्ञानिक उस एकान्त भयानक कुञ्ज में चुपचाप अकेला टहलता रहा। वह होंठों-ही-होंठों में गुनगुना रहा था। कभी-कभी उसके हाथों की मुट्ठियां बंध जातीं और वह बहुत उत्तेजित हो जाता। सम्भवतः वह अतीत की अति कटु और वेदनापूर्ण स्मृतियों को विस्मृत करने की चेष्टा कर रहा था। थोड़ी देर में वह शान्त होकर एक व्याघ्र-चर्म पर बैठ गया। बहुत देर तक वह ध्यानस्थ वहीं बैठा रहा। फिर वह उठा, कक्ष का द्वार सावधानी से बन्द करके वह उसी अन्धकारपूर्ण गर्भगृह में टेढ़ी तिरछी सुरंगों में चलता रहा, एक जलती हुई मशाल उसके हाथ में थी। अन्त में वह एक गर्भगृह के द्वार पर आकर खड़ा हो गया। प्रहरियों ने उसका प्रणिपातपूर्वक अभिवादन किया। प्रहरी से उसने कहा—

"क्या बन्दी सो रहा है?"

"नहीं जाग रहा है।"

"तब ठीक है, द्वार खोल दो!"

प्रहरी ने द्वार खोल दिया। वैज्ञानिक ने भीतर जाकर देखा, युवक अशान्त मुद्रा में एक काष्ठफलक पर बैठा है। आचार्य ने स्निग्ध स्वर में कहा—"तुम्हारा ऐसा अविनय आयुष्मान्?"

"किन्तु मैं..."

"चुप, एक शब्द भी नहीं—मेरे पीछे आओ!" आचार्य ने द्वार की ओर मुंह किया। पीछे-पीछे युवक था। वे उन्हीं टेढ़ी-तिरछी सुरंगों में चलते गए। अन्त में एक कक्ष के द्वार पर आकर वे रुके। वह एक प्रशस्त कक्ष था। एक दीपक वहां जल रहा था। बहुत-से मृतक पशु-पक्षियों के शरीर वहां लटक रहे थे। अनेक जड़ी-बूटियां थैलियों में भरी हुई थीं। बहुत सी पिटक, भाण्ड और कांच की शीशियों में रसायन द्रव्य भरे थे। यह सब देखकर युवक भय और घबराहट से भौचक रह गया। एक शिलापीठ पर बैठकर आचार्य ने तरुण को भी निकट बैठने का संकेत किया। वे कुछ देर उसके नेत्रों की ओर देखकर बोले—"तुम्हें अपने बाल्यकाल की कुछ स्मृति है?"

"बहुत कम आचार्यपाद! "

"तुम आठ वर्ष की अवस्था तक मेरे पास यहीं रहे हो। स्मरण है?"

"कुछ-कुछ।"

"अब, जब तुम तक्षशिला से चले थे—तब वयस्य बहुलाश्व ने तुमसे मेरे विषय में कुछ कहा था?"

"कहा था आचार्य। आचार्य बहुलाश्व ने कहा था—'सोम, तुम्हें मैंने शस्त्र और शास्त्रों का पूर्ण अध्ययन करा दिया, तुम्हारी बुद्धि प्रखर कर दी। अठारह वर्षों में तुम एक अजेय