रोई-पीटी, पर वर्षकार ने एक न सुनी। दासी एक सूप में नवजात शिशु को लेकर कूड़े पर फेंक आई। दैवयोग से उधर ही से राजगृह के महावैज्ञानिक सिद्ध शाम्बव्य काश्यप जा रहे थे। घूरे पर लाल वस्त्र में लपेटी कोई वस्तु पड़ी देखकर और उस पर कौओं को मंडराता देख, उनके मन में यह जानने की जिज्ञासा हुई कि यह क्या है। निकट जाकर देखा, एक सद्यःजात शिशु मुंह में अंगूठा डालकर चूस रहा है, निकट ही स्वर्ण दम्म से भरी एक चमड़े की थैली भी पड़ी है। आचार्य ने शिशु को उठा लिया और उत्तरीय से ढांपकर अपने मठ में ले आए तथा लालन-पालन करने लगे। उन्हें शीघ्र ही यह भी पता लग गया कि वह आर्या मातंगी का पुत्र है। उन्होंने उन पर और युवराज पर यह बात प्रकट भी कर दी। युवराज भयभीत हुए, परन्तु आचार्य ने आश्वासन दिलाया कि चिन्ता न करो। वे यह भेद न खोलेंगे। बालक का भी अनिष्ट न होगा। युवराज बिम्बसार ने आचार्य को बहुत-सा स्वर्ण देकर सन्तुष्ट कर दिया। परन्तु वर्षकार के इस ईर्ष्यापूर्ण क्रूर कृत्य से मातंगी का हृदय फट गया। उसकी कोमल भावनाओं पर बड़ा आघात हुआ और वह एकान्त में उदासीन भाव से रहने लगी। युवराज भी वर्षकार से भयभीत रहने लगे, क्योंकि उसे युवराज पर अब पूरा सन्देह था। इसी बीच सम्राट् की मृत्यु हो गई। मरने के समय उन्होंने युवराज बिम्बसार और वर्षकार को मृत्युशैया के निकट बुलाकर दो बातें कहीं। एक यह कि वर्षकार बिम्बसार के महामात्य होंगे। दूसरे अपने राज्य के तीसरे वर्ष बिम्बसार देवी मातंगी का उनकी पसन्द के वर से विवाह करके उन्हें आजीविका को अस्सी ग्राम दे दें। साथ ही एक पत्र गुप्तभाव से युवराज को देकर कहा—इसे तुम राज्यारोहण के तीन वर्ष बाद खोलना। तब मातंगी का विवाह करना।
सम्राट् मर गए। बिम्बसार सम्राट् और वर्षकार उनके महामात्य हुए। वर्षकार अब खुल्लमखुल्ला मठ में जाकर देवी मातंगी से मिलने लगे। मातंगी ने वर्षकार से विवाह करने का आग्रह किया। परन्तु वर्षकार ने कहा—"स्वर्गीय सम्राट् ने हमारे पूज्य पिता गोविन्द स्वामी के आदेश से यह व्यवस्था की है, कि सम्राट् बिम्बसार अपने राज्यारोहण के तीसरे वर्ष विवाह-व्यवस्था करेंगे।" मातंगी मन मारकर रहने लगी। परन्तु उसका चित्त उचाट रहने लगा। तीन वर्ष बीत गए और अपने राज्यारोहण की तीसरी वर्षगांठ के दिन सम्राट ने वह गुप्त पत्र खोला। उसमें लिखा था कि मातंगी वर्षकार की भगिनी है, उन दोनों का परस्पर विवाह नहीं हो सकता। किन्तु मातंगी की सहमति से सम्राट् उपयुक्त पात्र से उसका विवाह कर दें और अस्सी ग्राम उसकी आजीविका को दे दें।
वर्षकार और बिम्बसार दोनों ही भीत-चकित रह गए। भय का सबसे बड़ा कारण यह था कि मातंगी इस समय फिर गर्भवती थी और यह स्पष्ट था कि यह गर्भ वर्षकार का था। अतः इस दारुण और हृदयविदारक समाचार को उसे सुनाना सम्राट ने ठीक नहीं समझा और उन्हें समझा-बुझाकर जलवायु परिवर्तन के लिए वैशाली भेज दिया। कुछ दिन बाद एक कन्या को गुप्त रूप से जन्म देकर और स्वस्थ होकर मातंगी राजगृह में आईं और तभी उन्हें सत्य बात का पता चला। सुनकर वे एकबारगी ही विक्षिप्त हो गईं। उन्होंने मठ के सभी राजसेवकों को पृथक् कर दिया और कठोर एकान्तवास ग्रहण किया। वर्षकार का मठ में आना निषिद्ध करार दे दिया गया। सम्राट् बिम्बसार से भी मिलने से उन्होंने इन्कार कर दिया तथा अपने विवाह से भी। तब से किसी ने भी देवी मातंगी के दर्शन नहीं किए, किसी