है, यह नहीं कहा जा सकता था। धीरे-धीरे अम्बपाली अवश होने लगी और वादक की उंगलियां भी विराम पर आने लगीं। अम्बपाली धीरे-से एक लतागुल्म पर झुक गई और महापुरुष ने महार्घ वीणा रखकर उसे हाथों ही में उठाकर श्वेतमर्मर की पीठिका पर लिटा दिया।
धीरे-धीरे अम्बपाली ने आंखें खोलीं। आगन्तुक महापुरुष ने मुस्कराकर कहा—"देवी, अम्बपाली की जय हो!"
"मैं परास्त हो गई, भन्ते!"
"भद्रे, प्रेम में जय-पराजय नहीं होती। वहां तो दो का भेद नष्ट होकर एकीकरण हो जाता है।"
"किन्तु भन्ते, जो कुछ अनुभूति मुझे इस समय हुई, वह अभूतपूर्व है। क्या आप स्वयं गन्धर्वराज चित्ररथ अलकापुरी से मुझे कृतकृत्य करने पधारे हैं?"
"भद्रे, मैं उदयन हूं।"
"आप कौशाम्बीपति महाराज उदयन हैं? देव, अज्ञान में हुई मेरी अविनय की क्षमा करें।"
"सत्य प्रेम में अविनय-विनय नहीं होती है, भद्रे!"
"देव कैसे तीन ग्रामों में एक ही काल में वीणावादन करने में समर्थ हैं! ऐसा त्रिलोकी में कोई पुरुष नहीं कर सकता है।"
"और न त्रिलोकी में कोई जीवधारी वैशाली की जनपदकल्याणी अम्बपाली के समान तीन ग्रामों की ताल पर नृत्य कर सकता है।"
"किन्तु देव, वह नृत्य मैंने अवश अवस्था में किया है। क्या अब मैं फिर वैसा ही नृत्य कर सकती हूं?"
"यदि फिर वैसा ही वीणावादन हो तो।"
"किन्तु देव, इस वीणा से तो जड़-जंगम सभी अवश हो जाते हैं।"
"तुम्हारे अप्रतिम नृत्य से भी कल्याणी।"
"तो देव, आपको छोड़कर और भी कोई मनुष्य इस प्रकार वीणावादन कर सकता है?"
"केवल गन्धर्वराज चित्ररथ, जिन्होंने यह वीणा अपनी सम्पूर्ण विद्या सहित मुझे दी थी।"
"देव कौशाम्बीपति, क्या मैं फिर एक बार आपसे वैसे ही वीणावादन की प्रार्थना कर सकती हूं?"
"नहीं भद्रे, परन्तु अब तुम दिव्य नृत्य कभी न भूलोगी। जब भी तीन ग्राम में यह वीणा कोई बजाएगा, तुम ऐसे ही अलौकिक नृत्य कर सकोगी।"
"तो देव, आप क्या अपनी शिष्या अम्बपाली का आज आतिथ्य ग्रहण करेंगे?"
"नहीं भद्रे, मैं जैसे आया था, वैसे ही गुप्त भाव से चला जाऊंगा।"
"क्या अम्बपाली आपका कोई प्रिय कर सकती है?"
"वह कर चुकी। मैं अपना प्राप्तव्य पा चुका।"
"किन्तु देव...!"