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वैशेषिक दर्शन।

वान् द्रव्य के जितने गुण हैं सब जब तक वह द्रव्य रहता है तब तक स्थित रहते हैं और उस द्रव्य के अतिरिक्त और द्रव्योँ में भी पाये जाते हैँ। जैसे लाल रंग, जब तक घट रहेगा तब तक रहेगा। और घट के अतिरिक्त और द्रव्योँ में (कपड़े इत्यादि में) भी यह रंग रहता है। शब्द ऐसा नहीं है। इससे स्पर्शवाले द्रव्यों का गुण शब्द नहीं होसकता। अर्थात् पृथ्वी जल वायु अग्नि इन चार का गुण शब्द नहीं है। फिर आत्मा के जितने गुण हैँ, बुद्धि इत्यादि, ये किसी वाह्य इन्द्रिय से नहीं जाने जा सकते हैँ। और शब्द कान से गृहीत होता है। इससे शब्द आत्मा का गुण नहीं हो सकता। इसी कारण मन का भी गुण नहीं हो सकता। दिक्काल के भी जितने गुण हैँ उनका प्रत्यक्ष ज्ञान नहीं होता। इससे शब्द इनका भी गुण नहीं हो सकता है। पृथ्वी जल वायु अग्नि आत्मा काल दिक् मन इन आठ द्रव्यों का गुण शब्द नहीं हो सकता। इससे बाकी जो नवम द्रव्य आकाश रहा उसी का गुण शब्द माना गया है। सारांश यह है कि शब्द गुण जिस द्रव्य में रहता है उसी द्रव्य का नाम आकाश है।

शब्द एकही माना गया है और शब्दही आकाश का चिह्न है। इससे आकाश भी एकही है। परिमाण इसका 'परम महत्' है अर्थात् जिससे बड़ा नहीं हो सकता। आकाश की उत्पत्ति या नाश कभी नहीं देखे जाते, इससे वह नित्य है। शब्द आकाश का गुण है इससे शब्द का भान जिस इन्द्रिय से होता है—कान—उसको वैशेषिकों ने आकाशही माना है। अर्थात् कान के भीतर जो आकाश है उसीके द्वारा शब्दज्ञान होता है।

आकाश विभु सर्वत्र व्याप्त है। इसीसे इसका ज्ञान इन्द्रियों के द्वारा नहीं हो सकता। अनुमान ही से इसका ज्ञान होता है। शब्द गुण का आधार द्रव्य कोई अवश्य होगा। पृथ्वी आदि द्रव्य शब्द के आधार नहीं हो सकते हैँ। इससे आकाश एक द्रव्य है—इसी अनुमान से आकाश सिद्ध होता है।

काल

छठाँ द्रव्य काल है। द्रव्यों के विषय में ऐसे ज्ञान होते हैं कि यह इसके आगे हुआ था पीछे—या 'ये दोनों साथ ही देख पड़े,'—'यह जल्दी