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पृष्ठ:वैशेषिक दर्शन.djvu/२५

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वैशेषिक दर्शन।

 

दूसरा पदार्थ—'गुण'

जो द्रव्य में हो—जिसका अपना कोई गुण न हो—जो संयोग या विभाग का कारण न हो सके—वही गुण है (सूत्र १-१-१६)। जितने गुण हैं सभों में गुणत्व जाति है—वे सब द्रव्यों ही में पाये जाते हैं। उनके कोई गुण नहीं होते। उन में कोई क्रिया, चलनादि, नहीं पाई जाती (प्रशस्तपाद पृ॰ ९४)।

द्रव्य से गुण का मुख्य भेद यही है कि द्रव्य स्वयं आश्रय हो सकता है—गुण स्वयं आश्रय नहीं हो सकता और बिना किसी द्रव्य के आश्रय से रह भी नहीं सकता। गुण और कर्म का भेद इतना साफ नहीं है। सूत्रकार के लक्षणों से दोनों में इतनाही फरक मालूम होता है कि कर्म संयोग विभाग का कारण होता है, गुण नहीं। एक द्रव्य (घोड़ा) के चलन रूप कर्म से घोड़ा एक जगह छोड़ कर दूसरी जगह जाता है, अर्थात् एक जगह से उसका विभाग और दूसरी जगह से उसका संयोग चलनकर्म द्वारा होता है। दूसरा भेद यह मालूम होता है कि कर्म जितना है सब क्षणिक है, कुछही काल तक एक द्रव्य में रहता है, पर द्रव्य के गुण उसमें जब तक द्रव्य रहता है, या जब तक कोई दूसरा विरोधी गुण न उत्पन्न होजाय, तब तक बने रहते हैं।

सूत्र में १७ गुण बताये हैं। रूप, रस, गन्ध, स्पर्श, संख्या, परिमाण पृथक्त्व, संयोग, विभाग, परत्व, अपरत्व, बुद्धि, सुख, दुःख, इच्छा, द्वेष, प्रयत्न। (सूत्र १-१-६)। प्रशस्तपाद भाष्य में ६ और बतलाये हैं—गुरुत्व, द्रवत्व, स्नेह, संस्कार, अदृष्ट, शब्द। इन में 'अदृष्ट' शब्द से धर्म अधर्म ये दो विवक्षित हैं। इससे २४ गुण हुए। और जितने गुण हो सकते हैं वे सब इन्ही २४ के अन्तर्गत हैं।

गुण को निर्गुण बतलाया है (सूत्र १-१-१६)। फिर २४ गुण हैं—इसमें गुण की संख्या बतलाते हैं—संख्या एक गुण है, फिर गुण निर्गुण कैसे हुए? पर सूत्र में गुण १७ हैं ऐसा नहीं कहा है—केवल इतनाही कहा है कि थे ये गुण हैं। परन्तु भाष्य में स्पष्ट कहा है कि सूत्र में १७ गुण कहे हैं। इसका समाधान करने का प्रयत्न न्यायकंदली में किया गया है (पृ॰ ११)। "यद्यपि गुण निर्गुण हैं