होता है। इससे ये 'विशेष गुण' कहलाते हैं। (८) संख्या, परिमाण, पृथक्त्व, संयोग, विभाग, परत्व, अपरत्व, गुरुत्व, द्रवत्व (नैमित्तिक) वेग—ये 'सामान्य गुण' हैं, ये अनेक द्रव्यों में रहते हैं। इनके द्वारा द्रव्य एक दूसरे से अलग नहीं किये जा सकते, इन के द्वारा अनेक द्रव्य एक साथ समझे जाते हैँ, जैसे संयोग के द्वारा दो या अधिक संयुक्त द्रव्यों का ज्ञान होता है। (९) शब्द, स्पर्श, रुप, रस, गन्ध—ये एक एक कर एक वाह्य इन्द्रियों से गृहीत होते हैँ। शब्द का ग्रहण केवल श्रवण इन्द्रिय से होता है, स्पर्श का त्वक् से, रुप का आँख से, गन्ध का घ्राणेन्द्रिय से। इनका ग्रहण दूसरी इन्द्रियों से नहीं हो सकता। (१०) संख्या, परिणाम, पृथक्त्व, संयोग, विभाग, परत्व, अपरत्व, द्रवत्व, स्नेह, वेग—इनका ग्रहण दो इन्द्रियों से होता है। इनका ग्रहण त्वचा और आँख से होता है। (११) बुद्धि, सुख, दुःख, इच्छा, द्वेष, प्रयत्न—इनका ग्रहण अन्तःकरण मन से होता है। कुछ दार्शनिकों का मत है कि बुद्धि का प्रत्यक्ष नहीं होता, इसका अनुमान ही होता है। पर वैशेषिकों के मत में इसका प्रत्यक्ष ही होता है। (१२) गुरत्व, धर्म, अधर्म, संस्कार—ये अतीन्द्रिय हैँ, इनका ज्ञान इन्द्रियों के द्वारा नहीं होता, इनका अनुमान होता है। (१३) वे रूप, रस, गन्ध, स्पर्श जो अग्नि संयोग से नहीं उत्पन्न होते, परिमाण, एकत्व, एकपृथक्त्व, द्रवत्व, पृथक्त्व, स्नेह, वेग—ये 'कारणगुणपूर्वक' हैँ। जिस किसी वस्तु में ये गुण पाये जाते हैँ, उस वस्तु के कारण में, उनके परमाणुयों में, ये गुण रहते हैँ, उसी के अनुसार उन द्रव्यों में भी पाये जाते हैँ। जल के परमाणु में द्रवत्व है इसी से कुएँ के पानी में भी वह गुण पाया जाता हैँ। मिट्टी के ढेले में जो गन्ध है उसके परमाणुओं में ही वह हैँ। (१४) बुद्धि, सुख, दुःख, इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, धर्म अधर्म, संस्कार, और शब्द—ये 'अकारणगुणपूर्वक' हैँ, जिन द्रव्य में ये होते हैँ उनमें स्वयं रहते हैँ उसके कारण में नहीं। प्रात्मा में जो युद्धि उत्पन्न होती है वह आत्मा के कारण में नहीं है। इसका कारण यह है कि जिन द्रव्यों में ये गुण पाये जाते हैँ वे अमूर्त हैँ, केवल आत्मा और आकाश में ये गुण हैं, इन द्रव्यों का कारण नहीं होता, इस से इनके गुण इनके कारण में हैं ऐसा नहीं कहा जा सकता। (१५)
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