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वैशेषिक दर्शन।

से प्राप्त सुख का भी स्मरण होता है, फिर आत्मा मन के संयोग से उस वस्तु के पाने की अभिलाषा उत्पन्न होती है, वही 'इच्छा' है। यह इच्छा स्वार्थ भी है—'मुझे यह वस्तु मिले', और परार्थ भी 'फलाने आदमी को यह मिले'। प्रयत्न, स्मरण, धर्म, अधर्म इतने इच्छा के फल होते हैं। जब किसी वस्तु के पाने की इच्छा होती है तब उसके पाने के लिये प्रयत्न किया जाता है। जब किसी वस्तु के स्मरण करने की इच्छा हुई तो उस वस्तु का स्मरण होता है। स्वर्ग पाने की इच्छा से यज्ञादि करने से धर्म उत्पन्न होता है। निषिद्ध कर्म के करने की इच्छा से अधर्म होता है।

इच्छा अनेक प्रकार की है—

स्त्री सुख की इच्छा को 'काम' कहते हैं। भोजन की इच्छा को 'अभिलाष'। फिर फिर किसी वस्तु का सुख मिले ऐसी इच्छा को 'राग' कहते। जो वस्तु अभी नहीं है, आगे आने वाली है, उस वस्तु के अभी प्राप्त करने की इच्छा 'संकल्प,' अपनी इच्छा का कुछ भी विचार न कर दूसरे के दुःख को दूर करने की इच्छा 'कारुण्य', वस्तुओं का दोष देखकर उन वस्तुओं को अपनी ओर से हटाने की इच्छा को 'वैराग्य' दूसरों को ठगने की इच्छा, 'उपधा' बाहर व्यक्त नहीं हुई मन ही में छिपी हुई इच्छा को 'भाव' किसी काम के करने की इच्छा को 'चिकीर्षा' कहते हैं, स्त्री की पुरुष विपथिणी इच्छा को भी, 'काम' कहते हैं। इस प्रकार इसके अनन्त भेद हैं।

द्वेष (१६)

किसी वस्तु को देखकर या उसका स्मरण होने पर चित्त में जो जलन पैदा होती है इसी जलन को 'द्वेष' कहते हैं। जब किसी से अपने को दुःख पहुंचा है तब फिर जब कभी वह वस्तु सामने आती है या उसका स्मरण होता है तो उस दुःख का भी स्मरण होता है। फिर आत्मा मन के संयोग से द्वेष उत्पन्न होता है। यह भी इच्छा की तरह प्रयत्न स्मृति धर्म और अधर्म को उत्पन्न करता है। द्वेष भी कई प्रकार का होता है।

प्रयत्न (१७)

'प्रयत्न' कहते हैं संस्मरण को, उत्साह को। अर्थात् जब किसी