पृष्ठ:वोल्गा से गंगा.pdf/११२

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सुदीर् देखा, वह हवामें विलीन होनेवाला नहीं, बल्कि ठोस सिर था। उसने उसके मुँह, गाल, ललाट और केशको बार-बार चूम आसुओंसे सीचा, अनेक बार कण्ठ लगाया। मौकी अश्रुधाराको बन्द न होते देख सुदासने कहा-'म । मैं तेरे पास आ गया हूँ अब क्यों रोती है । | आज हीकै दिन भर वत्स ! आज ही घड़ी भर पुत्र ! यह अन्तिम आँस हैं, सुदास् ! मेरी आँखोंके तारे ! । अन्तःपुरसे सूचना राजा तक पहुँची । वह दौड़ा हुआ आया और सुदास्को आलिंगनकर अनिन्दाशु बहाने लगा। दिन बीतते-बीतते महीने हो गए, फिर महीने दो सालमै परिणत हो गए। माँ-बापके सामने सुदास् प्रसन्न-मुख बननेकी कोशिश करता; किन्तु एकान्त मिलते उसके कानोंमें वह वज्रच्छेदिका ध्वनि आती'मैं तेरे लिए मद्रपुरमें प्रतीक्षा करूंगी, और उसके सामने वही हिलते लाल अधर आ जाते और तब तक ठहरते, जब तककि आंखोंके आँसू उसे ओझल नहीं कर देते । सुदासके सामने दो स्नेह थे-एक ओर अपालाका वह अकृत्रिम प्रेम और दूसरी ओर वृद्धा माँका वात्सल्यपूर्ण हृदय । मकै असहाय हृदयको विदीर्ण करना उसे अत्यन्त नीच स्वार्थान्धता जान पड़ी, इसीलिए उसने माँ के जीवन पर पचाल न छोड़नेका निश्चय किया। लेकिन राजपुत्रके आमोद-प्रमोदपूर्ण जीवनको स्वीकार करना, उसे अपनी सामसे बाहरकी बात मालूम होती थी। पिताके प्रति वह सदा सम्मान दिखलाती थी और उसकी आशाके पालनमें तत्परता भी। | वृद्ध दिवोदासने एक दिन पुत्रसे कहा- वल्स सुदास् ! मैं जीवनके अन्तिम वटपर पहुँच गया हूँ, मेरे लिए पंचालको भार उठाना अब सुग्भव नहीं है।' तो आर्य ! क्यों ने यह भार पंचालोंको ही दे दिया जाय १३ ‘पचालको ! पुत्र तेरा अभिप्राय मैंने नहीं समझा। , 'अल्लिर आर्य ! यह्व राज्य पचालोंका है। हमारे पूर्वज पचाल