पृष्ठ:वोल्गा से गंगा.pdf/७५

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योगासे गंगा मैं क्या कहीं मर गया था ? ऐसा वचन मुहसे मत निकालो सुमेध ! जीते-जी मुझे विधवा -न बनायो । विधवाओंको पुरुमें देवरोंकी कमी नहीं ।” "और सधवाओंको क्या देवर विष लगते हैं --पुरधानने कहा। "हो, ठीक कहा पुरु | यह मुझको चराने आई है। सबैरेसे ही घर से निकली है, न जाने कितने धर न्योंते बाँटे होंगे और शामको एक कहेगा मेरे साथ नाच, दूसरा कहेगा मेरे साथ | झगड़ा होगा, खून -खराबी होगी, और इस स्त्रीके लिए बदनाम होगा सुमेध ।” उषाने हाथको छोड़ आँखों श्रर स्वरकी भावभंगीको बदलते हुए कहा—तो उषाको तुम पिटारीमें बाँधकर रखना चाहते हो ? जाओ तुम चूल्हे-भाड़में, मैं भी अपना रास्ता लेती हैं।” । उषाने एकान्त पा पुरुषानको देख मुस्कुरा दिया, और वह वैदीके गिर्दकी भीड़में गायब हो गई। सालमें सिर्फ आजका ही दिन है, जब वातकी उपत्यकामें पुराने इन्द्रको वहु-तटकी भाँति सबसे मोटे अश्वका मास खानेको मिलता है, घोड़े के लिए सारे जनमें चुनाव होता है । वैसे स्वात उपत्यकामें घोड़ा नहीं खाया जाता; किन्तु इन्द्रकी इस वार्षिक पूजाके यश-शेषको सभी भक्तिभावसै ग्रहण करते हैं। जनके महापितर-जिन्हें यहाँ जन-पति कहा जाता है-आज अपने जन-परिषद्के साथ इन्द्रको वह प्रिय बलि देनेके लिए मौजूद हैं। जनपतिको बलिदानका सारा विधि-विधान याद है, वह सारे मन्त्र याद हैं, जिनसे स्तुति करते हुए बहुतटवासी इन्दको वलि दिया करते थे। बाजे औरमन्त्र-स्तुतिकै साथ अश्वस्पर्श, प्रोचणसे ‘लेकर आलम्भन ( मारने ) तक सारी क्रिया सम्पन्न हुई। फिर अश्वके चमड़ेको अलग कर उसके शरीर के अवयवोंको अलग-अलग रखकर, कितनेको कच्चा और कितनेको बघारकर, अग्निमें आहुति दी गई। यज्ञ:शेष बँटते-बंटते शाम होनैको आई । तब तक सारा मैदान नर-नारियोंसे