यह तुम्हारे जन्म से पहले की बात है। उस समय साम्राज्य की ऐसी दशा नहीं हुई थी। उस समय मैं सचमुच महानायक था; एक मुट्ठी अन्न के लिए रोहिताश्व के गाँव-गाँव नहीं घूमता था ।” कहते-कहते वृद्ध का गला भर आया, शशांक के नीले नेत्रों में भी आँसू भर आए। अब वे लोग सभामंडप के तोरण पर आ पहुँचे। प्रतीहार रक्षकों के नायक ने युवराज का अभिवादन किया और फिर बड़ी नम्रता से वृद्ध का परिचय पूछा । वृद्ध ने कहा "मेरा नाम यशोधवल है। मैं युवराज भट्टारकपादीय महानायक हूँ।" सुनते ही प्रतीहार रक्षकों का नायक भय और विस्मय से दो कदम पीछे हट गया। मार्ग में विषधर सर्प को देख पथिक जैसे घबरा कर पीछे भागता है वही दशा उस समय उसकी हुई । उसकी यह दशा देख वृद्ध महानायक हँस पड़े। इतने में प्रतीहाररक्षी सेनादल में से एक वृद्ध सैनिक बढ़ कर आगे आया, आनेवाले को अच्छी तरह देखा, फिर म्यान से तलवार खींच उसे सिर से लगाकर बोला "महानायक की जय हो! मैंने मालवा और कामरूप में महानायक की अधीनता में युद्ध किया है।" उसकी जय- ध्वनि सुन कर उत्तर तोरण पर की सारी सेना ऊँचे स्वर से जय-श्वनि कर उठी । वृद्ध ने आगे बढ़ कर सैनिक को हृदय से लगा लिया । फिर गहरी जय-ध्वनि हुई । युवराज और वृद्ध ने तोरण से होकर सभामंडप में प्रवेश किया। प्रतीहाररक्षी सेना का नायक भौंचक खड़ा रहा । सभा- मंडप में तोरण के सामने दो दंडधर खड़े थे। उन्होंने युवराज को दर प्रणाम किया और उनके साथी का परिचय पूछा। कि... : में से एक ने सभामंडप के बीच में खड़े होकर पुकार कर कहा 'परमेश्वर परम वैष्णव युवराज भट्टारक, महाकुमार परमेश्वर परम वैष्णव श्रादि उपाधि राजा और ज्येष्ठ राजपुत्र की होती थी ! युवराज भट्टारक और महाकुमार ज्येष्ठ राजपुत्र के नाम के पहले लगता था। सम्राट् के नाम के साथ 'परमभट्टारक महाराजाधिराज' आता था।
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