पृष्ठ:शशांक.djvu/१४२

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(१२२) कुछ न कहकर तरला का हाथ पकड़कर उसे भीतर खींच लिया और उसे प्रतिमा के पीछे ले जाकर वहीं आप भी छिप रहा। दोनों मनुष्य मंदिर के द्वार पर आ पहुँचे। उनमें से एक बोला "शक्रसेन ! मंदिर का द्वार तो खुला दिखाई पड़ता है"। दूसरे व्यक्ति ने सीढ़ी पर चढ़कर देखा और कहा "हाँ, द्वार तो सचमुच खुला पड़ा है । बंधुगुप्त ! देशानंद दिन पर दिन विक्षिप्त होता जाता है। अब तुरंत किसी दूसरे को मंदिर की रक्षा पर नियुक्त करो।" दोनोंने मंदिर के भीतर घुसकर किवाड़ बंद कर लिए । बंधुगुप्त ने दीयट पर से दीया उठाकर जलाया। दोनों आसन लेकर बैठ गए। प्रतिमा के पीछे अंधकार रहने पर भी देशानंद बेंत की तरह काँप रहा था शक्र- सेन ने पूछा “संघस्थविर ! तुम्हारा मुँह इतना सूखा हुआ क्यों है ?" बंधुगुप्त-केवल यशोधवल के डर से | शक्रसेन-यशोधवल से तुम इतना डरते क्यों हो ? बंधु -क्या तुम सारी बातें भूल गए ? यशोधवल मर गया, यह समझकर मैं इतने दिन निश्चित था। शक्र०-पहले तो तुम मरने से इतना नहीं डरते थे। बंधु०-मरने से तो मैं अब भी नहीं डरता हूँ। और किसी के हाथ से मरना हो तो कोई चिंता नहीं, पर यशोधवल का नाम सुनते ही मैं थर्रा उठता हूँ। जिस समय उसे सब बातों का ठीक-ठीक पता लगेगा, वह असह्य यंत्रणा दे देकर मेरी हत्या करेगा-बड़ी साँसत से मेरे प्राण निकलेंगे। एक-एक बोटी काट-काट कर वह मेरा तड़पना देखेगा । सोचते ही मेरे रोंगटे खड़े हो जाते हैं । -तुमने कीचिंधवल को किस प्रकार मारा था ? बंधु०-यह क्या तुम जानते नहीं, जो पूछते हो ? शक्र०-तुमने तो मुझसे कभी कहा नहीं। शक्र०-