पृष्ठ:शशांक.djvu/१६८

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(१४८) कपोतिक संघाराम चलना होगा।' देशानंद ने रोते-रोते पूछा "क्यों ?" वज्राचार्य ने कहा "कोई डर की बात नहीं है। महास्थविर ने भोजन का निमंत्रण दिया है ।" देशानंद को विश्वास न पड़ा, वह छोटे बच्चे के समान चिल्ला चिल्ला कर रोने लगा। उसने मन में समझ लिया कि मेरी हत्या करने के लिए ही मुझे कपोतिक संघाराम ले जा रहे हैं। शक्रसेन ने एक भिक्खु को बुला कर कहा “जिनेंद्रबुद्धि ! तुम यहाँ मंदिर और संघाराम की रखवाली के लिए रहो, हम लोग एक विशेष कार्य से कपोतिक संघाराम जा रहे हैं। तुम दो भिक्खुओं के साथ देशानंद को तुरंत वहाँ भेज दो।" बंधुगुप्त और शक्रसेन संघाराम के बाहर निकले । भिक्खु लोग आचार्य के साथ बुरे-बुरे शब्दों में हँसी- ठट्ठा करने लगे । उसने किसी की बात का कोई उत्तर न दिया, चुपचाप रोने लगा और मन ही मन कहने लगा “तरला ! तेरे मन में यही था ?" आधी घड़ी भी न बीती थी कि सहस्त्र से अधिक अश्वारोहियों ने आकर मंदिर और संघाराम को घेर लिया। वसुमित्र को साथ लेकर महाबलाध्यक्ष हरिगुप्त और स्वयं यशोधवलदेव बंधुगुप्त को ढूँढ़ने लगे। जब बंधुगुप्त कहीं न मिला तब वे लोग भिक्खुओं से पूछने लगे; पर किसी ने ठीक ठीक उत्तर न दिया। उसी समय वसुमित्र देशानंद को देख बोल उठा “प्रभो ! इस व्यक्ति ने मेरे छुड़ाने में सहायता दी थी, इससे पूछने से कुछ पता चल सकता है ।" देशानंद को ज्यों ही छोड़ देने का लोभ दिखाया गया उसने तुरंत कह दिया कि बंधुगुप्त कपोतिक संघाराम को गए हैं। क्षण काल का भी विलंब न कर यशोधवलदेव अश्वारोही सेना लेकर कपोतिक संघाराम की ओर दौड़ पड़े। हरिगुप्त की आज्ञा से दो सवार देशानंद और जिनेंद्रबुद्धि को बाँधकर प्रासाद की ओर ले चले।