पाँचवाँ परिच्छेद सखी-संवाद एक पहर दिन चढ़ चुका है। शरद ऋतु को धूप अभी उतनी प्रचंड नहीं हुई है। पाटलिपुत्र के राजपथ पर ओहार से ढकी एक पालकी वेग से पूर्व की ओर जा रही है। नगर के जिस भाग में सेठ और महाजन बसते थे वहाँ की सड़क बहुत पतली थी। राजभवन की पालको और आगे पीछे दंडधर देखकर नागरिक सम्मान दिखाते किनारे जाते थे। फिर भी कभी कभी पालकी को रुक जाना पड़ता था क्योंकि रथ, छकड़े और घोड़े आते जाते मिल जाते थे। बीच बीच में पालकी के भीतर बैठी हुई स्त्री कहारों को मार्ग भी बताती जाती थी। इस प्रकार कुछ दूर चलने पर स्त्री की आज्ञा से पालकी रखी गई । पालकी के भीतर से घूघट डाले एक स्त्री बाहर निकली। उसे देख दो दंडधर पास आ खड़े हुए। उनमें से एक बोला “आप उतर क्यों पड़ीं ? महाप्रतीहार ने तो आज्ञा दी थी कि सेठ के अंतःपुर के द्वार तक पालकी ले जाना"। स्त्री-इसका कुछ विचार न करो और न यह बात महाप्रतीहार से कहने की है। मैं सेठ के घर पालकी पर बैठ कर न जाऊँगी। एक बार जिसकी मैं दासी रह चुकी हूँ अब राजभवन में दासी हो जाने के कारण उसके यहाँ राजारानी बनकर पालकी पर तो मुझसे जाते नहीं बनेगा । पालकी और कहार यहीं रहें, हाँ, तुम में से कोई दो आदमी मेरे साथ चले चलें।
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