सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:शशांक.djvu/२११

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

(१६३ ) ब० माँ-तू ही अपना मुँह जाकर पानो में देख, मुझे क्या पड़ी है ? मुँह जली घर छोड़ कर गई फिर भी स्वभाव न छूटा । सबेरे-सबेरे यहाँ लड़ने आई है ज्यों-ज्यों बसंतू की माँ का क्रोध बढ़ता गया त्यों-त्यों उसका स्वर भी ऊँचा होता गया। उसे सुन कर अंतःपुर से किसी युवती ने पूछा "बसंतू की माँ ! किसके साथ झगड़ा कर रही है ?" बसंतू की माँ ने सुर सप्तम तक चढ़ा कर उत्तर दिया “यह है, तुम्हारी तरला, बड़ी चहेती तरला ।" फिर प्रश्न हुआ "क्या कहा ?" बसंतू की माँ गला फाड़ कर बोली "अरे तरला, तरला; सदा यौवन के उमंग में रहने वाली तरला अब सुना ?" अंतःपुर से एक कृशांगी रमणी ने आकर तरला का हाथ थाम लिया और कहने लगी "अरी वाह री, राजरानी! इतने दिनों पीछे सुध हुई।" तरला ने प्रभु कन्या को प्रणाम करके कहा “बहिन ! ऐसी बात न कहो । युवती ने उदास स्वर से कहा “तू इस घर का मार्ग ही भूल गई थी क्या, तरला ?" तरला-बहिन ! जो कुछ हुआ सब तुम्हारे ही लिए तो । युवती ने आँचल से आँसू पोंछे और तरला का हाथ पकड़ कर अंतःपुर के भीतर ले गई । बसंतू की माँ ने अपना गर्जन क्रमशः धीमा करते-करते झाड़ फिर हाथ में लिया और वह अपने काम में लग गई। तरला ने अपने पुराने अन्नदाता के घर में जाकर सबको यथा योग्य प्रणाम किया और फिर उनसे बातचीत करने लगी । यूथिका कुछ काल तक तो. चुपचाप बैठी रही, फिर तरला का हाथ पकड़ कर उसे अपनी कोठरी में ले गई और किवाड़ भिड़ा लिए । तरला भूमि पर ही बैठने जाती थी पर सेठ की बेटी ने उसे जोर से खींच कर पलंग पर बिठाया और उसके गले में हाथ डाल कर बोली "तरला ! अब मेरा क्या,