( २१८) घुस आया है और बसंतू की माँ उसे पकड़े हुए है। बिना कुछ पूछे- पाछे पहले तो सब के सब मिलकर चोर को मारने लगे। मार खाते खाते घबराकर देशानंद कहने लगा "भाई ! मैं चोर नहीं हूँ, मुझे मत मारो । मैं महानायक यशोधवलदेव का शरीररक्षी हूँ, मुझे मत मारो। राजकुमारी अभिसार को आई थीं इससे मुझे संग ले आई थीं"। उसकी बात सुनकर कई लोग पूछने लगे "राजकुमारी कौन ?" देशा- नंद ने कहा “सम्राट महासेनगुप्त की कन्या और कौन ?" उसकी इस बात पर सब के सब हँस पड़े, क्योंकि सम्राट के कोई कन्या नहीं थी। किसी किसी ने कहा “अरे ! यह पक्का चोर है, इसे खूब पीटो और सबेरे ले जाकर नगररक्षकों के हाथ में दे दो। पाठक इतने ही से समझ लें कि देशानंद पर कितने प्रकार की मार पड़ी होगी। सवेरा होते ही नगररक्षक आकर उसे कारागार में ले गए । सेठ के आदमी सब नींद से आँख मलते उठे थे, इससे वे फिर अपने अपने स्थान पर जाकर सो रहे । उस रात घरवालों में से किसीको यह पता न चला कि यूथिका घर में नहीं है। वसुमित्र वेग से घोड़ा फेंकता प्रासाद में आ पहुँचा। मार्ग में शीतल वायु के स्पर्श से यूथिका को चेत हुआ। तोरण पर के रक्षक वसुमित्र को पहचानते थे, इससे उन्होंने कुछ रोक टोक न की । वमुमित्र नवीन प्रासाद के सामने पहुँच घोड़े से उतरा और सीधे यशोधवलदेव की कोठरी में गया। यशोधवलदेव सोए नहीं थे, जान पड़ता था कि उसका आसरा देख रहे थे। उनकी आज्ञा से एक दासी आकर सेठ की कन्या को अंतःपुर में ले गई और वसुमित्र भी महानायक को प्रणाम करके अपने स्थान पर गया।
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