(२२८) बहुत थोड़ी युवराज चार हजार से भी कुछ कम सवार लेकर पर्वत की ओर चले । उस समय शंकरनद के दोनों ओर घना जंगल था । ब्रह्मपुत्र के संगम से लेकर दो-तीन कोस तक के बीच केवल दो-तीन स्थानों को छोड़ और कहीं से नद पार नहीं किया जा सकता था। युवराज के शिविर से निकलने पर आकाश बादलों से ढक गया। सेना दल धीरे- धीरे नदी का किनारा पकड़े चलने लगा। शिविर से बारह कोस निकल आने पर कामरूप की सेना की आहट मिली । कुछ और बढ़ने पर दिखाई पड़ा कि प्रायः दस सहस्त्र सेना नद के उस पार एकत्र है। सेना के लोग बन से लकड़ी ला-ला कर सेतु बाँधने का उद्योग कर रहे हैं। उस स्थान पर नद दो चट्टानों के बीच से होकर बहता था, इससे उसका पाट चौड़ा न. था ।.युवराज ने सेना ठहरा कर सामंतों से परा- मर्श किया । सब ने एक स्वर से कहा “इस स्थान पर तो सेना लेकर बहुत बड़ी सेना का मार्ग रोका जा सकता है।" उनके उपदेश के अनुसार युवराज उस स्थान पर एक सहस्र अश्वारोही रख कर शेष सेना को लेकर आगे बढ़े। संध्या हो जाने पर युवराज ने नदीतट पर विश्राम के लिए शिविर खड़ा कराया । साथ में डेरा केवल एक ही था। युवराज ने 'सामंतों और नायकों सहित उसमें आश्रय लिया। सैनिक लोग पेड़ों के नीचे ठहरकर भीगने लगे ! बन में कहीं सूखी लकड़ी भी न मिली कि आग जलाते । रात अधिक बीतने पर मूसलाधार पानी बरसने लगा । माघ का महीना था, टिकने का कहीं ठिकाना न पाकर सेना ने अत्यंत कष्ट से रात काटी । सबेरा होते ही युवराज फिर आगे बढ़े। पानी धार बाँधकर बरस रहा था, सारा बन जल से भर गया था। तुषार सी ठंढी वायु प्रचंड वेग से बह रही थी इससे घोड़ों को दौड़ाना असंभव हो रहा या। इस प्रकार दो पहर तक चल कर युवराज की सेना जंगल के बाहर हुई । नायकों ने देखा कि सामने भारी मैदान है और हरे-भरे खेत दूर
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