(२३१) सेना की कुछ हानि कर सके। इससे वे चुपचाप डटे रहे । ज्योंही कामरूप की सेना पास पहुँची कि युवराज की सेना जय ध्वनि करती हुई वेग से आगे बढ़ी। जैसे मेघों के संघर्ष से घोर गर्जन होता है वैसे ही दो सेना दलों के संघर्ष से अस्त्रशस्त्रों की भीषण झनकार उठी। कामरूप की सेना आगे न बढ़ सकी, मागध सेना के आक्रमण के आघात से पीछे हटी। किंतु पीछे खचाखच भरी हुई सेना ने उसे फिर आगे बढ़ाया । कामरूप सेना ने फिर पार उतरने का उद्योग किया, पर मागध सेना ने उसे फिर पीछे जल में ठेल दिया। किंतु कामरूप के वीर सहज में हटने वाले नहीं थे। बड़े तीव्र वेग से कई सहस्र सेना एक साथ मुठी भर मागध सेना पर टूटी, पर फिर हार खाकर पीछे हटी। दो सहस्र मागध वीर चट्टान की तरह अड़े रहे। कई सहस्र सेना एक साथ आक्रमण करके भी उन्हें एक पग पीछे न हटा सकी। विजय की आशा छोड़ वे मरने-मारने के लिए खड़े थे। उनके जीते जी उन्हें वहाँ से हटा दे, जान पड़ता था कि ऐसी सेना उस समय पृथ्वी पर न थी। नद के उस पार हाथी पर बैठे युवराज भास्करवर्मा सेना का परिचालन कर रहे थे। अपनी सेना को बार-बार पीछे फिरते देख क्रोध और क्षोभ से अधीर होकर उन्होंने हाथीवान को हाथी बढ़ाने के लिए कहा। हाथी पानी में उतरा, पर पानी सुड़क कर ही वह अचल होकर खड़ा हो गया। हाथीवान ने बहुत चेष्टा की पर उसे आगे न बढ़ा सका। हाथी अंकुश की चोट खा-खा कर चिग्घाड़ने लगा, पर एक पर भी आगे न रख सका। भास्करवर्मा हाथी की पीठ पर से कूद पड़े और एक सेना नायक से घोड़ा लेकर उस पर सवार हो गए । इतने हो में सहस्रों वज्रपात के समान ऐसा घोर और भीषण झब्द हुआ कि सब के सब सन्नाटे में आ गए। पक्षी अपने-अपने घोंसलों को और पशु जंगल की झाड़ियों को छोड़ इघर-उधर भागने लगे। युवराज भास्कर
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