सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:शशांक.djvu/२८३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

(२६५ ) बहुत दूर से अनाथ बालक नवीन को लाकर इस लिए पाला पोसा था कि उसके साथ अपनी कन्या भव का व्याह कर देगा। इससे इधर भव को नवीन की अवज्ञा करते देख उसे बहुत दुःख होता। वह बीच बीच में भव को समझाता बुझाता, पर वह उसकी एक न सुनती थी। जिस दिन से पागल आया है उसी दिन से वह एकदम बदल सी गई है । वह घर का काम धंधा छोड़ दिन रात पिंजड़े से छूटे हुए पक्षी के समान कभी जल में, कभी वन में इधर उधर फिरा करती है। बूढ़े धीवर की वही एक संतान थी इससे वह उसे डाँट डपट नहीं सकता था। नवीन भी चुपचाप सहकर रह जाता और घर का जो कुछ काम-काज होता कर जाता था। भव ने फिर पूछा “पागल ! अच्छा बताओ तो तुम कौन हो?" उत्तर मिला "क्या जानूँ"। "बाबा जी कहते थे तुम राजपुत्र हो” । "राजपुत्र क्या ?' "राजा का बेटा"। "राजा क्या ?" "बाबा जी आवे तो पूछू गी" । "बाबा जी कौन?" "जो तुमको यहाँ लाए हैं।" "वे कौन हैं ?" "वे एक महात्मा हैं, पेड़ पर चढ़ कर यहाँ आते हैं। "क्या वे ही हमको यहाँ लाए हैं ?" "हाँ ! तुम लड़ाई में मारे गए थे। उन्होंने नाव पर लेकर तुम्हें बचाया था, पर आँधी में नाव उलट गई और तुम फिर पानी में जा रहे । बाबा मछली मारने गए थे, वे तुम्हें निकाल लाए।"