भट्ट बहुत बूढ़ा हो गया था, कान से भी कुछ ऊचा सुनता था। बालक की बात उसके कानों में नहीं पड़ी । वह अपनी कहता जाता था- "शकों के अत्याचार से मगध की भूमि जर्जर हो गई, देश में देवताओं और ब्राह्मणों का आदर नहीं रह गया। प्रजा पीड़ित होकर देश छोड़ने लगी। मगध और तीरभुक्ति के ब्राह्मण निराश्रय होकर लिच्छविराज के द्वार पर जा पड़े। किंतु परम प्रतापी विशाल के वंशज लिच्छविराज आप घोर दुर्दशा में थे। उस समय वे शकराज के वेतन- भोगी कर्मचारी मात्र थे। उन्हें ब्राह्मणों को अपने यहाँ आश्रय देने का साहस न हुआ। ब्राह्मण मंडली को आश्रय देना शकराज के प्रति प्रकाश्य रूप में विद्रोहाचरण करना था। किंतु जिसे करने का साहस लिच्छ- विराज को न हुआ उसे उनके एक सामंत चंद्रगुप्त ने बड़ी प्रसन्नता से किया । उन्होंने ब्राह्मणों को अपने यहाँ आश्रय दिया। वृद्ध पुरुपपरंपरा से चली आती हुई कथा लगातार कहता चला "आश्रय पाकर ब्राह्मण लोग पाटलिपुत्र की गली गली, घर घर देवद्वेषी बौद्धों और शकों के अत्याचार की बातें फैलाने लगे। शकराज की सेना ने महाराज चंद्रगुप्त का घर जा घेरा। नगरवासियों ने उत्तेजित होकर शकराज का संहार किया। चंद्रगुप्त को नेता बनाकर पाटलिपुत्रवालों ने शकों को मगध की पवित्र भूमि से निकाल दिया। धीरे धीरे विद्रोहाग्नि मगध के चारों ओर फैल गई । तीरभुक्ति और मगध दोनों प्रदेश बौद्ध शकों के हाथ से निकल गए । पाटलिपुत्र में गंगा के तट पर धूमधाम से चंद्रगुप्त का अभिषेक हुआ । पुत्रहीन लिच्छविराज अपनी एकमात्र कन्या कुमारदेवी का महाराजाधिराज चंद्रगुप्त को पाणिग्रहण कराकर तीर्थाटन को चले गए । देश में शांति स्थापित हुई।" "पाटलिपुत्र नगर में फिर वासुदेव के चक्रध्वज और महादेव के त्रिशूलध्वज से सुशोभित मंदिर चारों ओर आकाश से बातें करने
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