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पृष्ठ:शशांक.djvu/३०९

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सन्नाटा था, कोई कहीं नहीं दिखाई देता था । उज्ज्वल चाँदनी छिटकी हुई थी। कभी कभी विवाहोत्सव का कोलाहल वहाँ तक पहुँचकर गहरे सन्नाटे में भंग डाल देता था ।

एक युवती यंतःपुर के एक भवन से निकलकर छत पर आ खड़ी हुई । युवती की अवस्था अभी बहुत थोड़ी थी, दूर से देखने से वह बालिका जान पड़ती थी। उसका सौंदर्य अनुपम था। उसके सर्वोग में बहुमूल्य रत्नालंकार थे जो निर्मल चाँदनी पड़ने से जगमगा उठे । उसके केश छूटे हुए थे। जान पड़ता था कि वह अभी स्नान किए चली आ रही है। उसके शरीर पर अत्यंत बहुमूल्य महीन श्वेत वस्त्र था जो भूमि पर लोटता था। एक दासी ने आकर उसे सँभाला और फिर वह बाल सुखाने चली। युवती अनमनी सी होकर बोली "बाल हवा में सूख जायेंगे, तू यहाँ से जा" । दासी चली गई । रमणी छत पर इधर उधर टहलने लगी। थोड़ी देर में एक और दासी ने आकर कहा "महादेवि! सोने का समय हो गया" । रमणी ने पूछा "कितनी ही रात गई होगी ?" दासी ने उत्तर दिया “दो पहर के लगभग"। रमणी ने कहा “मैं अभी न सोऊँगी, तू जा" । दासी विवश हो चली गई।

थोड़ी देर में छिपा हुआ सैनिक अँधेरे में से निकलकर छत पर आ खड़ा हुआ और उसने दूर से पुकारा "चित्रा!" रमणी चौंक पड़ी, फिरकर जो देखती है तो कुछ दूर पर उस निखरी चाँदनी में श्वेतवस्त्रधारी एक पुरुष खड़ा है। पुरुष ने फिर पुकारा "चित्रा!" रमणी को कंठस्वर कुछ परिचित सा जान पड़ा। उन्होंने पूछा "तुम उचर दिया "चित्रा ! मैं हूँ"। रमणी को कुछ डर सा लगने लगा, उसने सकपकाकर कहा “तुम कौन हो ? मैं तो नहीं पहचानती"। पुरुष ने कहा “कंठस्वर से भी नहीं पहचानती, चित्रा! अब मैं क्या ध्यान से इतना उतर गया ?" उसने सिर