नीचे पूर्व अमात्य हृषीकेशशर्मा, महानायक यशोधवलदेव आदि बैठे हैं । स्थाण्वीश्वर का राजदूत प्रधान अमात्य के आसन पर बैठा है । सब लोग चिंतामग्न और चुपचाप हैं ।
महाप्रतीहार विनयसेन सभामंडप के तोरण पर खड़े हैं । उनके पास दो चार दंडधर और प्रतीहार भी खड़े हैं । अकस्मात् विनयसेन चौंक पड़े। उन्हें जान पड़ा कि एक श्वेतपरिच्छदधारी पुरुष के साथ माधव वर्मा, वसुमित्र, विद्याधरनंदी इत्यादि विद्रोही नायक सभामंडप की ओर आ रहे हैं। विनयसेन ने अच्छी तरह दृष्टि की, देखा तो सामने वीरेंद्रसिंह ! वीरेंद्रसिंह ने अभिवादन के उपरांत कहा "महाप्रतीहार ! एक गौड़ीय सामंत महानायक से मिलना चाहते हैं।" विनयसेन ने विस्मित होकर पूछा “कौन ? अरे तुम कब आए ?"
वीरेंद्र०-मैं अभी आ रहा हूँ। विवाह के उत्सव पर पहुँचने के लिए चला था, पर मार्ग में विलंब हो गया इससे कल न पहुँच सका ।
इतने में श्वेत वस्त्रधारी पुरुष विनयसेन के सामने आ खूड़े हुए और पूछने लगे “विनयसेन ! मुझे पहचानते हो ?” विनयसेन चकित होकर उनके मुँह की ओर ताकते रह गए। आने वाले पुरुष ने फिर पूछा “विनयसेन ! इतने ही दिनों में भूल गए ?" विनयसेन ने पूछा "तुम-आप कौन हैं ?" पीछे से अनंन वर्मा ने उस पुरुष के सिर का उष्णीष हटा दिया । लंबे-लंबे धुंघराले भूरे केश पीठ और कंधों पर बिखर पड़े। देखते ही विनयसेन के पैर हिल गए। महाप्रतीहार घुटने टेक हाथ जोड़ कर बोले "युवराज-महाराजाधिराज-"। शशांक ने विनयसेन को उठा कर गले से लगा लिया। दंडधरों और द्वारपालों ने सम्राट् को देखते ही जयध्वनि की । “महाराजाधिराज की जय“, युवराज शशांक की जय" आदि शब्दों से सभामंडप काँप उठा।
यशोधवलदेव बैठे एकाग्रचित्त चित्रा की बात सोच रहे थे। दो एक बूंद आँसू भी उन्होंने चुपचाप तक्षदत्त की एकमात्र कन्या के