पृष्ठ:शशांक.djvu/३१७

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वे बोल उठे "सुना है, देखा है, यशोधवलदेव ! शशांक सचमुच आगए।"

यशो०-हृषीकेश ! अब वचन का पालन करो।

हृषी०-हाँ विलंब किस बात का है ?

दोनों वृद्धों ने माधवगुप्त का हाथ पकड़कर उन्हें सिंहासन से उतारा, और वेदी के नीचे खड़ा कर दिया। बिना कुछ कहे सुने चुपचाप माधवगुप्त मगध के सिंहासन पर से उतर रहे थे। यह देख थानेश्वर का राजदूत कड़ककर बोला "महाराजाधिराज ! किसके कहने से सिंहासन छोड़ रहे हैं, बूढ़ों और बावलों के ? युवराज शशांक को तो मृत्यु हो गई। आप इस सिंहासन के एकमात्र अधिकारी हैं। झूठी माया में पड़कर आप अपने को न भूलें।" इतना सुनते ही अनंत वर्मा भूखे बाघ की तरह झपटकर वेदी पर आ पहुँचे और उन्होंने जोर से लात मारकर राजदूत को गिरा दिया ।

इतने में सभामंडप के चारों ओर दंडधर लोग चिल्ला उठे “हटो रास्ता छोड़ो, महादेवी आ रही हैं ।" सभासद सम्मानपूर्वक किनारे हट गए । माधवगुप्त वेदी के नीचे खड़े रहे। शोक से शीर्ण महादेवी उन्मत्त के समान आकर सभामंडप के बीच खड़ी हो गई। थोड़ी देर तक शशांक के मुँह की ओर देख उन्होंने झपटकर उन्हें गोद में भर लिया | आनंद में फूलकर जनसमूह जयध्वनि करने लगा।

महादेवी के साथ गंगा, लतिका, तरला, यूथिका तथा और न जाने कितनी स्त्रियाँ सभामंडप में आई। उन्हें एक किनारे खड़े होने को कहकर यशोधवलदेव बोले “महादेवी जी! शांत हों, महाराजा- धिराज को अब सिंहासन पर बिठाएँ" । थानेश्वर का राजदूत बड़ा विचक्षण और नीतिकुशल था । वह पदाघात का अपमान भूलकर फिर बोल उठा "महानायक ! आप ज्ञानवृद्ध और नीतिकुशल हैं । घार माया